गुरुवार, 25 अगस्त 2016

" मेरी पहली हवाई यात्रा "

 (बादलो के ऊपर जहा  और भी है )

                                                  देवेन्द्र कुमार शर्मा  सुन्दर नगर रायपुर

हम लोगो ने बचपन से   अनेको  बार हवाई जहाज  को उड़ते  देखा   है , जब तक की वह  सिर के ऊपर से पुरी तरह से गुजर कर नज़र से ओझल  न  हो जाए।  लेकिन उस पर चढ़ने का स्वप्न  देखने की गलती मैंने  कभी भी  नहीं की थी  । बचपन में  समीप  से एक बार हवाई जहाज को माना  एरोड्रम से  उड़ते हुए  हुए देख कर   खुद को भाग्यशाली मानता   था  ।


 ये अलग बात है  की अब वो बात मुझे  कभी कभी  बचपना सा लगता है ।मेरी पहली हवाई यात्रा   कुछ ऐसी ही रही जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था और वो हो भी गई यूं ही अचानक। प्लेन देवता ने भी सोचा होगा डी के तू कब  तक  मुझमे बैठने से  बचेगा और एक बीमारी मुझे लगा दी ,डाक्टरों ने हमे  इतना डराया की मैंने भी सोचा कि अब ज्यादा दिन का मिहमान तू नही है ,मुझे भी लगा की भैय्ये मरने से पहले ही जिन्दा रहते पुष्पक विमान में चढ़ लू   ।  मरने के बाद क्या पता जमीं मार्ग से ले जाये। स्थिति ऐसी हो गई थी  की बस अब मुंबई तो  जाना ही है।  और जल्दी ही और कल ही ,चाहे तो  हवाई यात्रा भी चलेगी । मरता न क्या करता ,चलो भाई  . आपने  भी सुना होगा गुग्गुल की जड़ी बूटी दवाई के रूप में  काम आता ही है  । ये कैसा होता है कभी जानने की कोशिश तो  नहीं की। पर परिजनों ने वैसा ही कुछ मिलता जुलता नाम का उपयोग कर  गुग्गुल डाट काम  इंटरनेट में – फ्लाईट खोजने में उपयोग   किया। और मिला एक –  जेट एयर वेज़  । शब्दार्थ खोजा तो पता चला –जेट वायु मार्ग
 वैसे  जेटएयर वेज़ के प्रचार में नीली  ड्रेस में एयर होस्टेस एकदम परी सी लग रही थी ।  अब क्या था – हम  इस मुसीबत की दुनिया से काफी उपर, नील आकाश में  परियों के साथ यात्रा  करने वाले थे,शुरु हो गयी तैयारी । टिकट बुक करवाया इंटरनेट से ।

  किन्तु मन को लगा की मोबाइल में टिकट कैसे हो सकता है भाई मगर विश्वास नहीं हुआ कि बिना लाईन में लगे खुद से प्रिटिंग किया हूआ  अपना कागज टिकट कैसे हो सकता है ।  फिर खुद को ऐसे मनाया कि मेरे को ठग सकते है सभी को थोड़े ही न ठगेंगे  साथ में तो दुनिया से परिचित मेरे साले साहब    व् बेटा भी तो संग में है न  ।  कुछ भी हो ,मैंने समझदार यात्री बन  ,  पहले तो  टिकट के ऊपर  छपे नियम-कानुन को  ध्यान से पढ़ा । देखा एक ही बैग ले जाने को कहा है – उसकी लंबाई – चौड़ाई – ऊँचाई – भार, 35 किलो सब निर्धारित है । एक अलग से लैपटाप  भी आप  चाहे तो ले जा सकते है । चलो  ठीक है ।
उस दिन फ्लाईट शाम को थी । मेरे  बीबी  जिसके पास निर्देशो का पुरी रेडीमेड पोटली रहती है को  मैनें न छेड़ी । क्युकि  पता था – अगर पोटली इकबार  खुली तो, शांति का आशा नहीं थी । और उस दिन को मैं पुरी शुभ यात्रा बनाना चाहता था । फिर किसी को जान बुझकर दुखी करके यात्रा थोड़े ही न बनता है । सो मैनें थोड़ी  ही   बात की, वो खुश और मैं भी खुश । बाई – बाई फिर आफलाईन ।हमारे बहुत सारे साथिओ  के लिए तो  हवाई यात्रा, आटो रिक्शा जैसा है  । मैं  सोचता था की एक बार खाली चढ़ तो लुँ, हवाई जहाज पर, अन्य हवाई यात्रिओ की तरह अपना भी जन्म सार्थक हो जाए ।
वैसे ही पहले बार ही मुंबई छोटे इंजीनियर  बेटे के  पोस्टिंग  के बाद जा रहा था – वो भी हवाई जहाज से । वहाँ घर पे सब  डॉक्टर  के  कथन  से – दुखी हो मेरे घंटे गिन रहे थे । मै भी सोच में  था कि  पता नही क्या हो सशरीर इसी हालत में  लौटूंगा की नही ,  खैर हम एयरपोर्ट पहुंचे पहूँचकर देखा तो सब स्टेन्डर्ड यात्री । ज्यादातर बढ़िया सुटकेश और बढ़िया बैग लेकर चलने वाले ।
 इधर हमारे  रेलवे ,और बस स्टेशन पर तो झोला वाले  या फिर  सस्ते सुटकेश व् बैग वाले  ही  खुब दिखते हैं,ठीक  भी है ,मैंने अपनी आँखों से कीमती  या  बढ़िया सुटकेश वालो को लूटते ,चोरी होते  हुए भी खूब देखा है मन में प्लान हो गया कि अगली बार के लिए एक हवाई यात्रा लायक सैमसोनाईट सुटकेश  जिसका विज्ञापन  अधिक दिखाते है  वाला ही खरीदना होगा ,

 आखिर हमारे  भी तो कुछ  सम्मान  है की नही  । अभी जो भी , जैसा है, ठीक है।  खैर हमने भी अपना बैग का चेन आदि चेक कर  सामान जमा लिया। मेरी आदत खुद हि इस काम को करने की रहती है। ताकि बाद में असुविधा न हो।
पीयू  (सिस्टर इन लॉ की बेटी )जो कि  मुंबई में   इंजीनियर  है , हमेशा ही  प्लेन में ही  आती जाती रहती  है  ,ने फ़ोन में  बता दिया था कि पुरी जाँच पड़ताल होती है, सीट नम्बर भी वहीं मिलेगा इसलिए एक घंटा पहले  ही पहुंच जाना चाहिए । हम   घर से बिदा लेकर २० की. मी. दूर  विवेकानंद एरोड्रम में  पहुंच गए। एक सिक्योरिटी गार्ड ने बेटे के  हाथ में ई-टिकट देखकर आईडी कार्ड और टिकट चैक करने के बाद  कहा कि आप चाहें तो वहां( दूसरे गेट) से भी एंट्री कर सकते हैं। वहाँ जाकर देखा, बस फर्स्ट क्लास वेटिंग रुम जैसा कुर्सी की लाईन।

 और साफ सुथरा वातावरण।  मैंने पहली बार किसी भी एयरपोर्ट पर पहली बार कदम रखा था ।  हम   जहाँ “चेक इन” लिखा देखा –   खड़ा हो गए  । हम पुरा एक घंटे पहले पहुंचे  थे  ना इसलिए  लाईन  में नबंर एक  पर थे । पुरे बीस मिनट खड़े  रहे वहीं  पीछे मुड़ कर देखा तो लंबी लाईन लगी थी । मैं पुरा गौरवान्वित महसुस कर रहा था उस समय , नहीं तो मुझे एक बार लेट से स्टेशन पहूँचकर चलती गाड़ी में चढ़ने का बुरा अनुभव रहा है । पॉकेट से पैसे अलग साफ । चेक – इन शुरु हो गयी । मेरे सामने एक पट्टी  चलने लगी । एक स्टाफ ने डाल दिया मेरा बैग उस पट्टी पे ।  बेचारा बैग – बिना मालिक का चला गया, एक छोटी सी अँधेरी सुरंग  में ।

 मैंने  एक्स रे करवाया था दो सौ रुपये लगे थे । अरे वाह, और यहाँ सामान का एक्स रे भी फ्री । हमें बगल के दुसरे रास्ते से टिकट देखकर जाने दिया । साले साहब को   बैग  अंदर जाकर नहीं मिला ,मैं वहाँ खड़ा रहा । हमारे   पीछे खड़े कई महाशय अपना सुटकेश लेकर चले गये । उसके बाद दो लोग और  अपना सामान लेकर चले गये । अब  हमारा दिमाग ठनका – कुछ गड़बड़ हुआ है । उनका  बैग देखा तो जाँच करने वालों ने उठाकर रख लिया था । और उन्हें खड़ा देख जाँच करने वाला पुछा – “ये आपका बैग है क्या , पता चला है कि इसमे कोई ठोस चीज़ है ।” “अरे  यार, एक्स रे मशीन तो उस्ताद है “- मैनें सोचा । उन्होंने   कहा “टोर्च  हैं “। उसने  बैग खोलने को कहा – “चैक होगा “। फिर वे  संतुष्ट हो गये  कि ये   उग्रवादी (टाईप) नहीं है  । और  मुक्ति मिली । नही तो बैग से पैक्ड सामान को निकालकर फिर से डालना भी बड़ा कष्टकर होता है ।
 उनलोगों नें उसे पुरा सुरक्षा स्टीकर से सील कर  किया उधर मेरा बैग एक  ने वहीं पर ले लिया । देखा चली गयी बेचारी बैग – फिर एक रोलर  पे  चलती पट्टी में । अब   पारी आई शरीर  और ,मोबाइल के चेक की.मैं देख रहा था कि एक ट्रे में सब मोबाइल और पर्स तक निकाल के रख रहे हैं । रह गया हाथ में सिर्फ बेटे की  अपना हैडबैग। जिसका भी एक्स-रे किया जा चूका था।  ये गार्ड सिर्फ आईडी प्रुफ और बोर्डिंग पास चैक कर रहे थे। मेरे आईकार्ड और बोर्डिंग पास चैक होगया और जैसे ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की तभी मुझे एक गार्ड ने रोक दिया।
मुझे लगा कि जरूर से ही कोई बात होगी। पता चला कि नहीं आगे वालों की चैकिंग नहीं हुई है तो मुझे और मेरे पीछे की जनता को रोक दिया गया।निपट कर   हवाई अड्डे से सभी लोग अपना सामान (हैंडबैग) लेकर प्लेन पर  चढ़  रहे थे  ,  मैंने सोचा  किस्मत मेरी अगर तेज रही तो ही मिलेगी, खिड़की वाली सीट । पहली बार की यात्रा तो ठहरी न।  , खैर मेरे साइड खिड़की मिल गई।

खैर मैं भी हवाई जहाज पे जा रहा था जो की  ट्रेन की यात्रा से  काफी बेहतर है , अब  सीढ़ियां हटा ली गईं थी। एयरहोस्टेस जो कि उदघोषिता भी थी उसने सूचना दी कि थोड़ी देर में फ्लाइट उड़ने के लिए तैयार है और उदघोषणा बंद होगई।धीरे-धीरे विमान जोरो से   गड गड की आवाज़ करते हुए  बस  की तरह  सरकने लगा और रनवे तक पहुंच गया। विमान थोड़ा रुका और मैंने धरती को जी भरकर पास से देखा व्  अपने बगल में बांयी और की विंग को देखने लगा। विमान रनवे पर चल दिया फिर तेज आवाज़ के जरिए दौड़ने लगा। बस एक छोटे से हल्के झटके के साथ प्लेन  आसमान की तरफ बढ़ गया। धरती पीछे और नीचे छूटती जा रही थी और मैं लगातार नीचे देखता जा रहा था। पर ये क्या, प्लेन की लेफ्ट विंग नीचे की तरफ क्यों झुक रही है। मेरा तो कलेजा मुंह को ही आ रहा था और मैं नीचे देखने से डरने लगा।खैर थोड़ा ऊपर जाकर विमान ठीक से चलने लगा। और एक एयर होस्टेस को कई तरह से मुसीबतों से बचने के नियम कानून ..हाथ को व्यायाम की  मुद्रा में हिलाते देखा ..कुछ समझ आया कुछ नहीं . एहसास हो रहा था कि जैसे चढ़ाई में कुछ दिक्कत हुई है और अब वो समतल सड़क पर ठीक से चलने लगा है। और प्लेन में काफी आवाज़ हो रही थी। लेकिन ऊपर  से धरती को देखना का सुख मुझे बहुत ही प्रफुल्लित कर रहा था। साथ ही लग रहा था कि गूगलअर्थ में जो चित्र उभरते हैं वो सचमुच में ही काफी सही और जीवंत लगते हैं।नीचे धरती, उसके ऊपर बादल, उसके ऊपर हमारा विमान और हमारे विमान के ऊपर सिर्फ और सिर्फ साफ आसमान।  फिर  विमान परिचारिका आयी और अपने साथ  एक टेबल नुमा ट्रे लेकर  नास्ते की चीज लेकर  निकली और पूछा  कि  नाश्ता चाहिए क्या , और  पानी की  बोतल। लोगो ने  नाश्ता  लिया हमारी पहले ही  पेटपूजा हो गई थी , फ़िर वही परिचारिका आकर नाश्ते की प्लेट ले गयी, चूँकि नाश्ते की प्रक्रिया के लिये बहुत ही सीमित समय होता है, तो विमान की सारा स्टॉफ़ बहुत ही मुस्तैदी से कार्य कर रहा था। जैसे ही उन लोगों ने नाश्ते की प्लेट्स ली सभी से वैसे ही कैप्टन का मैसेज आ गया कि आप छत्रपति शिवाजी विमानतल पर उतरने वाले है और फ़िर मौसम की जानकारी दी गई। उससे पहले खिड़की से नजारा देखा तो पूरी मुंबई एक जैसी ही नजर आ रही थी, पहचान नहीं सकते थे कि कौन सी जगह ह

 सुदूर  फ्लैट की रंगबिरंगी  बत्तियों के बीच से उतरना भी इक  रोमांचक अनुभव रहा. मुम्बई एरोड्रम  में  लगता है कि हर 05 मिनट में प्लेन उड़ते और उतरते रहते  है .

  सिर्फ पौने दो घंटे में मैं मुंबई पहुंच गया। पूरी उड़ान के वक्त मैं एक अलग एहसास होता रहा जो कि बिल्कुल अलग था। खैर नीचे उतरते ही रनवे  से बस एरोड्रम के लिए   लग जाती है । वहा से सामान लेकर  निकले. और  वहा  पर मेरे छोटे बेटा जो कि टैक्सी लेकर इंतेजार मे  था  के  साथ आगे बढ़ लिये..,,,,,,,,,, ।

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