शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

स्‍पेन- मेक्सिकों में प्राप्‍त शैलाश्रयों के समकालीन तीस हज़ार ईसा पूर्व की  सिंघनपुर गुफा छत्तीसगढ़

नृत्यांगना के चित्र केवल इसी शैलआश्रयों में पाए गये है ,? 


सिंघनपुर गुफा यह रायगढ़ जिला मुख्‍यालय से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. व रायगढ़ तथा खरसिया के बीच भूपदेवपुर रेलवे स्‍टेशन से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.

सिंघनपुर में विश्‍व की सबसे प्राचीनतम मानव शैलाश्रय स्थित है. यह गुफा 30 हजार साल पुरानी है. यहां पाषाणकालीन अवशेष पाये गए हैं तथा छत्‍तीसगढ़ में प्राचीनतम मानव निवासके प्रमाण मिले हैं. यह गुफा स्‍पेन- मेक्सिकों में प्राप्‍त शैलाश्रयों के समकालीन माने जाते हैं.पुरातत्ववेत्तास्व. एंडरसन ने १९१२ मे इसे प्रथम बार देखा था .और एनसाइक्लोपिडिया.ब्रिटेनिका  के 13 वे अंक मे पहली बार यहां की सुचना प्रकाशित हुई .१९१८ के इंडियन पेंटिंग के अंक मे इसके शैल चित्रों के  बारे मे  प्रकाशित होते ही लोग इसकी और आकर्षित होने लगे . आदिमानव के द्वारा छोड़े गए औजार गुफा मे प्राप्त हड्डिया  उनके रहन सहन  इन्हें महानदी घाटी मे पाषाण कल और उत्तर  पाषाण काल से निवास करना बताते है .
यहां प्राप्‍त प्रागैतिहासिक कालीन तीन गुफाएं लगभग 300 मीटर लंबी तथा 7 फुट उंची है. इस गुफा के के बाहय दीवारों पर पशु एवं मानव की आकृतियां बनी हुई है, शिकार के दृश्‍य भी बने हु ए हैं, जो बहुत ही सुंदर लगते हैं.
देश में अब तक प्राप्‍त शैलाश्रयों में प्रागैतिहासिक मानव तथा नृत्यांगना के चित्र केवल इसी शैलआश्रयों में प्राप्‍त है.
लोग  रायगढ़ जिले  के गुफाओ जंगल के आसपास पाषाण काल व उत्तर
 पाषाण काल के पहले से रहते आ रहे है  क्युकी सबसे अधिक आदिमानव के रहने का संकेत आसपासके एरिया मे मिला है .शैल चित्रों के अध्ययन से इस एरिया मे डाइनासोर जैसे प्रगेतिहासिक प्राणी के भी निवास करने की संकेत मिलते है .साथ ही आसपास के और गुफाओ  मे जिराफ ,शतुरमुर्ग से मिलते जुलते,व हाथी ,जंगली विशाल भैसा  जैसे प्राणी के भी चित्र पाये गए है .याने की आसपास  के सारे जंगल मे इनके निवास थे .
स्व.अमरनाथ दत्ता ने विस्तृत सर्वेक्षण कर ए फ्यू  रेलिक्स एंड द राक्स पेंटिंगऑफ़ सिंघनपुर   व श्री लोचन प्रसाद पांडेय जी ने महाकोशल हिस्टोरिकल पेपर्स मे यहां के तथा आसपास के सारे गुफाओ के  ऐतिहासिक महत्त्व के बारे मे प्रकाशन किया था .
लोकभ्रान्ति है की इस गुफा मे खजाना है .सिंघनपुर गांव के लोगो का कहना है कि यह जगह किसी ज़माने में साधू संतो का अखाडा रहा है। ये सभी सन्त सिद्धि प्राप्त कर चुके थे। जो आज भी इस गुफा में तपस्या करते है .

गुफा में मौजूद बड़े मधुमक्खियों को अदृश्य संतो का अनुचर मानने वाले ग्रामीणों की भी कमी नही है।उनका मानना है की बुरी नीयत से गुफा में प्रवेश करने वालों संतो की आत्माए आज भी लोगो को मधुमक्खियों के रूप मे यही दंड देते है।
इस गुफा में कई ऐसे सवाल है। जिनके ऊपर कई धारणाये सदियो से जस की तस चली आरही है। इस गुफा में छुपे खजाने को लेने और बुरी मनसा से आने वाले लोगो की मौत किसी न किसी कारणवश हो जाती है।
यहाँ की प्रचलित कहानियों पर नज़र डाले तो खजाने की तलाश में अंग्रेज अफसर राबर्टसन से लेकर रायगढ़ राजघराने के राजा लोकेश बहादुर सिंह की अस्वाभाविक मौत ने गुफा के रहस्य को और मजबूत करने का ही काम किया है।
सदिया बीत जाने के बाद भी गुफा का रहस्य अपनी ओर पर्यटकों को आकर्षित करती है। क्या आप नही आना चाहेंगे इस जगह पर,,,,,,?

रविवार, 18 सितंबर 2016

   चिखलदरा-

यही भीम ने कीचक का वध कर लिया था द्रोपदी के अपमान का बदला लेने

चिखलदरा- जहा पंचबोल पॉइंट पर आवाज पांच बार गूंजती है


मुझे इस जगह बैतूल मे निवास के दौरान सिर्फ एक दिन के लिये जाने का मौका लगा था .जहा के लिये मै बैतूल से परतवाडा और अचलपुर से होते हुए गया था. चिखलदरा यह  विदर्भ क्षेत्र   हाराष्ट्र का एकमात्र रमणीक हिल स्टेशन है । यह महाराष्ट्र के अमरावती जिले मुख्यालय से से 85 किमी दूर स्थित है। यहा की पहाड़ियों ट्रेकिंग के लिए बहुत उपयुक्त हैं। इसके अलावा, काफी और कपास की खेती के लिए भी प्रसिद्ध है।

यहां का इतिहास

एक पर्वतीय पठार है पर स्थित है ...चिखलदरा के मुख्य पॉइंट्स गविलगढ़ का किला-धुंध में लिपटा गविलगढ़ के किले के बारे में यह माना जाता है कि यह गविलगढ़ के गवली जनजाति का किला है. चिखलदरा के पठार पर बना यह किला अब मेलघाट टाइगर प्रोजेक्ट के अंतर्गत आता है.
भीमकुंड- गांव से डेढ़ किमी. की दूरी पर बने इस कुंड के बारे में कहा जाता है कि कीचक का वध करने के बाद भीम ने इस कुंड में अपने हाथ धोए थे. यहां से 3500 फीट गहरी घाटी और तेज बहती एक धारा यहां का आकर्षण है.
देवी मंदिर-यह स्थान शक्कर झील से थोड़ी दूरी पर है. यह गुफा में मदिर तीन बड़े पत्थरों के स्लैब से बना है. शक्कर झील का पानी लगातार गुफा की छत से बहता रहता है.
हरीककेन पॉइंट- इस पॉइंट के नीचे गविलगढ़ किला, मोजारी गांव, वेरंत पहाड़ी और प्रकृति का विस्तृत नजारा नजर आता है.
सनसेट पॉइंट- यह पॉइंट वेरंत पहाड़ी पर स्थित है. माना जाता है महाभारत काल में राजा वेरंत की राजधानी हुआ करती थी. यहां से सूर्यास्त का मनमोहक नजारा दिखता है.
पंचबोल पॉइंट- यह यहां का प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण पॉइंट है. यहां पर प्राकृतिक रूप से पांच पहाड़ियों के किनारे मिलते हैं और मिलकर एक सामान्य और विशाल घाटी का निर्माण करते हैं. यहां पर आवाज पांच बार गूंजती है. यही वजह है कि इसे पंच घाटी भी कहा जाता है. इस जगह का नाम 'कीचक' के नाम पर पड़ा. यह वह स्थान है जहां भीम ने अधर्मी कीचक का वध करके यहां की घाटी में फेंक दिया था. इसके बाद ही इस स्थान को 'कीचकदारा' के नाम से जाना जाने लगा जबकि चिखलदरा इसका बिगड़ा हुआ नाम है.
चिखलदरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी - विदर्भ क्षेत्र के अमरावती जिले में चिखलदरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी है. इस अभयारण्य का नाम 'कीचक' के नाम पर पड़ा. यहां पर चीते, भालू, सांभर और जंगली सूअर पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होते हैं. कई बार यहां जंगली कुत्ते भी नजर आ जाते हैं.
मेलघाट टाइगर रिजर्व- सतपुड़ा पहाड़ियों की श्रृंखला के जिले अमरावती के चिखलदरा और धरनी तहसील में मेलघाट टाइगर रिजर्व बना हुआ है. 1676.93 वर्ग. किमी. में बना यह टाइगर रिजर्व महाराष्ट्र में भारतीय बाघों के संरक्षण के लिए बचा हुआ आखिरी स्थान है.
कैसे पहुचे
हवाई मार्ग से
नजदीक का एयरपोर्ट नागपुर 235 km दूर है ,जो की भारत के सभी शहर से अच्छी तरह से जुडा हुआ है .
रेलमार्ग
समीपस्थ रेलवे स्टेशन बडनेरा ,अमरावती से 93 km दूर है .ये स्टेशन नागपुर से भुसावल के बीच के स्टेशन है .
सड़कमार्ग
यहां पर बस के द्वारा अकोला ,अमरावती ,नागपुर ,और बैतूल से अचलपुर ,परतवाडा होकर भी आ सकते है ,किन्तु अपने निजी कार या टैक्सी मे आना ज्यादा बेहतर है.
नज़दीक के शहर से दूरी
अमरावती– 85 km
अकोला – 131 km
नागपुर – 230 km
इन्दोर – 295 km
बैतूल _ 85 km







शनिवार, 17 सितंबर 2016

इसीलिए तो ऐसे कार्यालय मे बलि का बकरा मातहत ही बनता है ?


कार्यालय प्रमुख/विभाग प्रमुख के कार्य करना बहुत ही आसान है भारत मे आप पूछेंगे ऐसा क्यू ? मैंने अपने शासकीय सेवा क़ाल मे पाया की कार्यालय प्रमुख की हैसियत से कार्य करना ज्यादा आसान है ,अधिकारी के पद मे रहते हुये ,बनिस्पत मातहत कर्मचारी के रूप मे काम करना .पहला निर्णय तो आधिकारी को वही लेना है, जो ऊपर के निर्देश होते है , यानि की सिस्टम से बाहर तो जा ही नही सकते है किन्तु यही पर कुछ बाते ऐसी भी होती है की आधिकारी क्या करू ,न करू सोचते हुए उहापोह मे पड़े रहकर फाइल को लटकाए रखता है .या बहुत से आधिकारी मैंने ऐसे भी देखे है. जिनमे निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है. खुद निर्णय लेना उनके लिए कठिन है . ऐसे लोग सामान्यतः कार्यालय के बड़े बाबु या मुहलगे अन्य किसी अधिकारी / कर्मचारी पर आश्रित होते है .मेरी जानकारी मे ऐसे ही एक आधिकारी को उसके मातहत बड़े बाबू ने समझाया सर फाइल आपके पास अटकने से असंतोष फैलता है , आप ऐसा किया करे फाइल भेजने वालो को चर्चा हेतु लिखकर लौटा दिया करे .जब वो आधिकारी आये तो उससे अच्छे बुरे सभी पहलुओं पर चर्चा कर लीजिये और फिर फाइल. मे लिखिए ,श्री ,,,,,, उपस्थित ,चर्चा अनुसार (as discussed )और फाइल लौटा देवे .आपको क्या आपने तो जो भी निर्णय लिया है , अपने मातहत से उसके द्वारा बताने अनुसार लिया है. आपको क्या करना है कोई बात हुई तो फिर मातहत तो है हि न , की उसने आपको गलत जानकारी देकर भ्रमित किया . और उस आधिकारी को उनके पुरे कार्यकाल मे हर फ़ाइल पर ''Please Discuss'' रिमार्क डालते ही पाया इसीलिए तो ऐसे कार्यालय मे बलि का बकरा मातहत ही बनता है

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

क्या आपने कभी जासूसी उपन्यास लिखने वाले इब्ने सफी बी ए का नाम सुना है , जिनकी किताबें तकियों के नीचे जरूर मिलती । अलमारियों की शोभा भले हि न बनती रही हों, ,,,, नही सुना न ?

( यदि कहू तो इब्ने सफी जासूसी दुनिया के प्रेमचन्द थे )

उन दिनों मैं 10वीं में पढ़ता था। इब्ने सफी के नाम से परिचित था, लेकिन उन्हें पढ़ा तब तक न था। उन दिनों मुहल्लों मे दो ‘आना’ मे लाइब्रेरियों पर इब्ने सफी के नावल किराए पर मिलते थे। पच्चीस पैसे में शायद दो दिन के लिए।
पर मुझे तो कभी भी दो दिन नहीं लगे। कहानी कहने का जादुई अंदाज, बला का थ्रिल और सस्पेंस नावल को बीच में छोड़ने ही नहीं देता था. एक शाम श्री इब्ने सफी के लिखे पुस्तक पुस्तक पढ़ते ही मुझे भी उनका दीवाना बना दिया।
श्री इब्ने सफी ने ढाई सौ से भी ज्यादा जासूसी उपन्यास लिख कर वे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय व सबसे ज्यादा बिकने वाले जासूसी उपन्यासकार बन गए थे।इब्ने सफी का रचना काल (1952-1980) सियासी-समाजी नजरिए से उथल-पुथल का जमाना है।
उन्होंने समय-समाज की हर चाल और आहट को पकड़ने की कोशिश की और जहां भी, जितना भी मौका मिला, पूरी रचनात्मकता के साथ अपने उपन्यासों का हिस्सा बना लिया।इब्ने सफी का रचना संसार रहस्यमय भी है और रंगारंग भी।
उर्दू और हिंदी पाठकों की कई पीढ़ियों की यादों का वे हिस्सा बने रहे है . जिनकी पुस्तके पहले कौन पढ़ेगा को लेकर बचपन मे हम भाइयो मे आपस मे झगडा भी हो जाता था. इनकी जासूसी पुस्तक पाठ्यपुस्तक के भीतर छिपा कर भी पढ़ी जाती थी .
अब्बास हुसैनी नूरउल्लाह रोड स्थित जासूसी दुनिया के प्रकाशक थे .एकदम सामान्य सादा सा प्रकाशन . लेकिन पुरे पुस्तक हाथो हाथ बिक जाते थे. यह बिलकुल सही बात थी की लोग उनके आगामी पुस्तक की प्रतिक्छा करते रहते थे लोग एडवांस मे पुस्तक बुक कराके रखते थे .
जासूसी साहित्य की अपनी सीमाएं हैं और जरूरतें भी, लेकिन इब्ने सफी जुर्म और मुजरिम के चेहरे बेनकाब करने के साथ-साथ तफ्तीश के बहाने हाथ आए समाज के काले-सफेद कोनों को भी उजागर करते चलते थे .
आदमी कितना गिर सकता है, इसका अंदाजा करना बहुत मुश्किल ,,,,,,,, जो की इनके उपन्यास पढ़ कर सोचने को मजबूर हो जाना पड़ता था.
इब्ने सफी ने कुल 52 साल की उम्र पाई, जुलाई 1980 मे अपने चहते रचनाकार की अचानक मौत की खबर ने लोगों को बेचैन कर दिया था। इब्ने सफी की मौत की बातें सबके लिए ये अपना गम था।
इब्ने सफी के उपन्यासों के प्लाट बड़े तहदार रहे हैं। शब्दों से उन्होंने चलते-फिरते चित्र बनाए हैं। लफ्जों की ऐसी तस्वीरें कीं, पढ़ने वाला खुद को उसका हिस्सा समझने लगता है।
मनोविज्ञान की समझ ने उन्हें दृष्टि और प्रभावी काट दी। मुजरिम की घिसी-पिटी तलाश की बजाए वो उन सोतों तरफ भी इशारा करते हैं, जो जुर्म और मुजरिम उगल रहे हैं। इब्ने सफी ने अपने कुछ नावलों में साइंस फिक्शन और साइंस फैंटेसी का भी सहारा लिया है।
वो पाठक को एक ऐसी फिजा में ले जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उसे अचरज का सामना होता है। पात्र गढ़ने में भी इब्ने सफी ने महारत का सुबूत दिया है। विनोद , फरीदी, हमीद, इमरान जैसे हीरो ही नहीं, संगही, हम्बग, फिंच, अल्लामा दहशतनाक, डा. नारंग, डा. ड्रेड, जेराल्ड, थ्रेसिया जैसे विलेन भी याद रह जाते हैं।
इब्ने सफी जुर्म को ग्लैमराइज नहीं करते। वो जुर्म से नफरत सिखाते हैं। साजिशों से आगाह करते हैं। ये भरोसा भी कि जुर्म और मुजरिम का अंजाम शिकस्त ही है। जीत आखिरकार अमन और कानून की ही होगी।
जिनके जासूस चरित्र कर्नल विनोद और सहायक हमीद तथा खिलंदरा चरित्र राजेश जो की ऊपर से जोकर की तरह था ,तो अन्दर से बहुत ही ज्यादा चुस्त चालक जासूस जो बॉस को नाराज़ करता था .लेकिन कठिन से कठिन केस आने पर बॉस का पसंदीदा जासूस भी .हमीद और राजेश के चरित्र लडकियों से फ्लर्ट करने का रहता था. लेकिन अंत मे ज्ञात होता की ये भी तो केस सुलझाने के लिए किया गया था .
बड़े प्रकाशकों ने हिंदी और अंग्रेजी में उनके उपन्यास छापे। मौत ने उन्हें भले ही हमसे छीन लिया, लेकिन वो जिंदा हैं अपनी रचनाओं में। अपने पात्रों में। अपने लाखों चाहने वालों के दिल में।

मंगलवार, 6 सितंबर 2016


बुरा हि देखन मैं चला ......भला न दिखो कोई ,,,?.


देवेन्द्र कुमार शर्मा ,११३ सुंदरनगर रिंगरोड1केसमीप रायपुर 
मैंने सामान्यतः शासकीय कार्य के दौरान में या व्यक्तिगत जीवन में भी अनुभव किया है।. जब भी कोई नया कर्मचारी या अधिकारी किसी कार्यालय मे स्थानांतरित होकर आता है।
या फिर किसी नए व्यक्ति से आपका परिचय होता है ,तो कोई भी अन्य व्यक्ति जो की उसे जानता है ,कभी भी उसके जीवन में हुए उसके द्वारा अच्छी बातो की चर्चा नही करेगा। कभी उससे हुई गलती ,या उसके बुरे पक्ष की जानकारी ह
ी देने की कोशिस करते है।
मुझे राज्य ग्रामीण विकास संस्थान में पंचायत के ग्राम सचिव से उनके नए पदनाम में अधिकारी शब्द जुड़ने पर प्रदेश के करीब १५०० लोगो की मानसिकता पद के अनुकूल किये जाने हेतू सौपी गयी। मैंने उन्हें नए पद के दायित्वों के अनुकूल बनने लगातार किस्तों मे ट्रेनिंग भी देना चालू किया।
ट्रेनिंग के दौरान एक रोज़ मैंने दीवार में एक बडा सा सफेद ड्राइंग पेपर चिपकाया !फिर उस पर मार्कर से एक काला ङाॅट बना कर लोगों से पुछा तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है !
बहुत से लोग बोले काला ङाॅट ,कुछ ही बोले सफ़ेद पेपर जिस मे क़ाला डॉट लगा है।
मैंने ने उनसे कहा कमाल है ! इतना बड़ा सफेद पेपर छोङकर तुम्हें ये छोटा सा काला ङाॅट ही दिखाई दिया !
यही हाल है लोगों का उन्हे किसी व्यक्ति कि जीवन भर की अच्छाई नजर नही आती ! और छोटी सी बुराई जो भी शायद जाने अनजाने में ही हो गई हो ,ही नज़र आ जाती है।
ऐसा क्यों सोचे .......?मैंने उन्हें बोला कि एक बुराई ही बार बार नजर आती है ! सफ़ेद पकछ नज़र नही आया।
यदि तुम्हे जीवन में आगे बढ़ना है तो लोगो की बुराई को देखने की आदत छोड़ना होगा। जो अच्छा हो रहा है पहले उस पर नज़र डालो।
जो की दिख रहे काला ङाॅट से कहि ज्यादा बड़ा हिस्सा सफेद (उज्जवल ) का है। लेकिन जो की आपको नज़र नही आ रही है।
यही बात हमारे भी साथ लागु है। वैसे मुझे तो बड़ा बुरा लगता है जब कोई दुसरे की बुरे करने की कोशिस करता है।
क्युकी मुझे तो पता है अन्यत्र वो मेरी भी बुराई जरुर करेगा।
जिन्दगी के सफर से,
बस इतना ही सबक सीखा है ।
सहारा कोई कोई ही देता है,
धक्का देने को हर शख्स तैयार बैठा है ।।

मेरे अन्य लेख पढने के लिए नीचे दिए गए ब्लॉग के  लिंक पर क्लीक करे :--Posted by Jivan Ke Jadui Rang By D.K. Sharma raipur chattisgadh at 02:07

सोमवार, 5 सितंबर 2016

कनिष्ठ ( अधिकारी ) को अपने से वरिष्ठ अधिकारी का अहम् को भी कायम      रखना चाहिए  ,,, ?  ( फाइलों में बॉस सिग्नेचर क्यों नही करते ,उनमे से एक कारण यह भी )


मैंने अपने शासकीय सेवा काल में देखा हु की  फ़ाइल  टेबल में ही बिना किसी निर्णय के ही पड़ा रहता है। इसके  पीछे  के कारणों में से एक कारण मुझे यह भी समझ में आया की कार्यालय  चाहे सरकारी हो या गैर सरकारी  ,  नौकरी  में  कभी कभी  प्रबंधक का अहम् को  भी  अवरोधक( बाधक ) बनते  देखा  जाता है  
 यहाँ  पर कनिष्ठ ( अधिकारी ) साथियो को इस बात को समझने की आवश्यकता है ।  
इस बात  को  ऐसे समझे के आप ( कनिष्ठ होने के कारण ) एक अच्छा जानकार आदमी  है , अपने साथ  अनेको तकनिकी प्रस्ताव साथ में लेकर  अपने अधिकारी  के कमरे में प्रवेश कर  बॉस से  कहते  है  ?
सर इन कागज़ों में सिग्नेचर कर  देवे ,,,    ?
अधिकारी -क्या है ये   ,,   ?
सर ये सब तकनिकी जानकारी   है , जो की  कंप्यूटर आदि   से सम्बंधित है ,
 आप नही समझ पाएंगे ?
ठीक है   छोड़  जाओ   ,, ?   ( बॉस बोलता है )         
 ( मन में जब समझ लूंगा तब कर  दूंगा  दस्तखत )
यह पर आप देखिये की कनिष्ठ ने आने वरिष्ठ अधिकारी के ज्ञान और छमता पर व्यंग किया।
 उन्हें जानकारी नही  है  का बोध कराया। 
अब आप ही बताइये की क्या कोई वरिष्ठ अधिकारी इस तरह की प्रतिक्रिया को स्वीकार करेगा । 
इसके बजाय यदि वह  ये कहता की  सर यह एक बिलकुल सामान्य तकनिकी प्रतिवेदन है ,जिसे की मैंने पढ़ लिया है। बिलकुल सही है अभी आप व्यस्त है। यदि आप कहे तो इसे छोड़ जाता हु। आप देख कर   समझ लीजियेगा ,या फिर मुझे बुला लीजियेगा। 
इसे वित्त विभाग में उच्च अधिकारियो के माध्यम से शीघ्र भेजना है । 
शायद ऐसे समय में वरिष्ठ  अपने कनिष्ठ  को    यही कहता की अब आपने तो  देख ही लिया है ,और सिग्नेचर उसी समय ही  कर  देता। 
इस वाकिया से यह बात तो स्पष्ठ  होती है न की जहा  वरिष्ठ  को कनिष्ठ के प्रति संवेदनशील रहना है  वही पर  कनिष्ठ का भी  कर्तव्य बनता है की  वह  वरिष्ठ   अधिकारी के प्रति  यथो चित सम्मान  का व्यव्हार करे। 


रविवार, 4 सितंबर 2016

 बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  कनिष्ठ व चपरासी के सामने  हो जाता है  शेर  

                                              ( अधिकारी कैसे कैसे ) 

                 "  स्वयं में तो दम नही और सोच में   किसी से कम नही   "  



मध्यवर्गीय  परिवार का सदस्य भी  एक अजीब  सा जीव होता है ,क्युकी एक और  उसमे उच्च वर्ग का अहंकार तो दूसरी और निम्न वर्ग की दीनता होती है। अहंकार और दीनता से मिलकर बना उसका व्यक्तित्व बड़ा ही विचित्र होता है। वह बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है तो  अपने से कनिष्ठ व् चपरासी के सामने शेर बन जाता है। मज़ेदार बात जब होती है जब वो अपने से कनिष्ठ को ज्यादा सुख पूर्वक बैठे देख ले। तुरंत ही उसके पेट में गुड गुड गुड चालू हो जाता है। कि  उसकी कुर्सी मेरी कुर्सी से अच्छी क्यू …,,,,,,? 
यह  बात हरिशंकर परसाई जी ने अपने एक व्यंग में लिखा था।
आज भी लोग गुलामी की  मानसिकता    से ऊपर नही उठ पाये है , इनके लिए अच्छा व्यवहार  में काम करके ,लोगो की दिल जीतना नही आता। ऐसे लोग लोगो को  नियमो के जाल  में  लपेट  कर   लोगो पर   रुआब गाठ अपना सिक्का जमाना  चाहते है।
बिचारे नही जानते है  की उनकी साहबी को लोग उनके सामने खड़े रहने तक ही  मानते है। 
वे रोजाना  के लिए इनके पीठ पीछे के  हंसी -मज़ाक   के मुख्य विषय   है। अब  काम करने का युग है। काम करने वाले की इज़्ज़त है, न की काम को लटकाने  हेतु  नियम खोजने वालो की। 
भारत में शासन की ढीला पन की  बदनामी कराने में  ऐसे ही लोग है शामिल है  ।
सरकारी तंत्र में लीडरशिप की बात यदि करे तो मैंने अनेको अधिकारीयो  को जो की जिम्मेदार पदो के शीर्ष  में  बैठे हुए रहते है , को अपने टेबल में फाइलों के ढेरो के बीच चिड़चिड़ाते , बौखलाते  हुए  बैठा  पाता हु।
क्योंकि   फाइल को  वे न तो यस ही कर पाते  है  और न ही  नो  कर पाने की हिम्मत । डर  अलग बैठा है की फॅस  न जाऊ। दूसरा मेरी कलम से खा तो नही लेगा। 
 ऐसे लोग जो  सामने आया  तो कटकन्ने कुत्ते जैसे भोक दिया ,नेता आया तो पूछ हिला दिया।
 " ऐसे लोग  न तो फायर ही कर पाते है और न ही उसे झेल पाते है। "
 वे  भगवान  के भरोसे आगे ही आगे बढ़ते जाते है। ऐसे लोग  सोचते है की उनके सारे कुकृत्य दूसरे की सर में चढ़ जाये। और वह स्वयं  साफ सुथरा  सत्यवादी हरिस्चन्द्र की भांति  दीखता रहे  
"  स्वयं में तो दम नही और सोच में  हम किसी से कम नही "   में ही  इनकी पूरी  जिंदगी कट जाती है। 

 " खप्पर " कवर्धा  देवी के मंदिर से  निकलने वाले  , दाएं हाथ में चमचमाती  तलवार व बाये हाथ में अग्नि से  धधकता  खप्पर लाल रंग क वस्त्र  में  अष्ट्मी  नवरात्री की  रात्रि पहर  को रौद्ररूप में  निकलता है  वह नगर भ्रमण में   ? 

                        क्या आपने भी  ऐसा और देखा है  कही पर  ?

   (छत्तीसगढ़  कबीरधाम जिले की  अष्टमी   नवरात्र  में  विशेष प्रथा )

 मेरी पहली  राजपत्रित अधिकारी के रूप में पोस्टिंग  वर्ष १९८२ में कवर्धा जिले के भीतर बोड़ला ब्लॉक में हुयी थी। तब राजनांदगांव के दूरस्थ  उपेक्छित  वनांचल  छेत्र में उसकी गिनती होती थी। आवागमन के मार्ग नही तथा मलाजखंड बालाघाट के समीप से लेकर पूर्व बिलासपुर जिला के पांडातराई के पास तक और मज़ेदार यह भी की कवर्धा जिला मुख्यालय से 05  कि, मी . से आगे राजनांदगांव रोड  से लेकर  बैगा चक  मंडला  के मंगली तक लगा हुआ एरिया आता था। चिल्फी घाटी ,भोरमदेव मंदिर ,परसाही (पुरातत्व खोज वाली ) आदि    भी  ब्लॉक में ही शामिल  थे।

दशहरे ,नवरात्री में पूरा बैगा  समुदाय के  परिवार राज फॅमिली से भेट - परंपरा के निर्वाह हेतु   पैदल पैदल चलकर कवर्धा तथा बोड़ला में अपना  डेरा पुरे 05  , 07  दिन के लिए झाड़ के नीचे  डाल  देता था।

         मेरा यह बताने का मतलब सिर्फ यह है की वो राजवाड़ा  छेत्र होते हुए भी उस समय कितना पिछड़ा हुआ था.। आवागमन हेतु मार्ग भी नही थे। 
बोड़ला काफी छोटी सी जगह थी , सिर्फ मेरे ,थानेदार ,रेंजर  और डॉक्टर्स क्वार्टर  मात्र थे।
 हम लोग भी दशहरा त्यौहार  मानाने ,अथवा सामन आदि की खरीदी हेतु   परिवार सहित कवर्धा ही चले जाया करते थे।  
         चैत्र नवरात्रि के अष्टमी  पर जब   कवर्धा  गये  तो  मेरे मित्र श्री एम  .डी दीवान   (रायपुर नगर निगम आयुक्त भी रहे )  व् भाभी जी ने  हमे वहाँ   देवी के मंदिर से  निकलने वाले " खप्पर " जो की आधी रात  में   निकल कर  पुरे शहर का भ्रमण करता है ,को देखने   हेतु   रात  रुक कर    सुबेरे चले जाने की सलाह दी। 
हम लोग छत्तीसगढ़ में काफी  जगह नोकरी की वजह से रहे है ,किन्तु यह शब्द हमारे लिए नया था ।  किन्तु  रात  नही रुक कर  वापस  मुख्यालय लौट आये । 
मैंने   अन्यो से   "  खप्पर "  प्रथा  के बारे में जानकारी ली।   
         भारत  में  कई जगहों पर  "  खप्पर "  निकालने की परंपरा वर्षों पुरानी है।   और छत्तीसगढ़ में  कवर्धा नगर में आज भी वर्षों पुरानी खप्पर निकालने की परंपरा का निर्वहन धार्मिक आस्था के साथ किया जाता है।

         इत्तेफ़ाक़ देखिये की  कुछ वर्षो बाद मेरी पोस्टिंग कवर्धा विकासखंड में हि हो गई।
 मेरे क्वार्टर  वहां  के एक प्रमुख चौराहे पर था। जिसके सामने   पास ही  महामाया देवी का   मंदिर था।  खैर फिर वह दिन आया  तथा  sdm  ने लॉ एंड आर्डर की मीटिंग ली।  एक सदस्य के रूप में मुझे भी समझ में आयी कि  यह प्रथा धार्मिक मान्यता के अनुसार ग्राम व नगर की पूजा प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति दिलाने व नगर में विराजमान देवी-देवताओं का रीति-रिवाजों के अनुरुप मान-मनौव्वल स्थापित करने के लिए  है।
        प्रतीकात्मक पोशाक गहरे लाल रंग का कपड़ा में  कृत्रिम केश और मुकुट धारण कर बाएं हाथ मेें  धधकता हुआ मिट्टी का खप्पर एवं दाएं हाथ मेंचमचमाती नंगी तलवार धारण कर  आधी रात   में  2 , 4  लोग निकलेंगे। 
पूर्व  वर्षो में उग्र होने के कारण लोगो पर तलवार भी घूमा  दिए थे । अतः पब्लिक जो की उस अवसर पर दूर दूर से हज़ारो की संख्या में आये रहते है किसी भी तरह की भगदड़ की स्थिति निर्मित नही होने पाये  यह हमे ध्यान में रखना है। 
खैर वह  दिन आया  जबकि खप्पर निकलना था। 
         मेरा शासकीय  आवास उसी  रोड में  चौराहे पर था। खा पीकर हम लोग सो गए। आधी रात  के लगभग भनभनाहट  की आवाज़ से नींद खुल गई। परिवार के सभी लोगो को भी जगाया  ,देखा तो पुरे सड़क की दोनों और  हज़ारो की संख्या में महिला और पुरुष तथा बच्चे खप्पर के आने    का इंतज़ार करते   एक तरह के खास अनुशासन के साथ   खड़े हुए थे।  
तभी काफी दूर से  एक अजीब सी किलकारी की आवाज़ आई ,  उउउउउउहुउउउउउऊ ,हूउउउमऊ  जैसे की कोई उन्माद में हो।  सड़क की बिजली बत्ती  गुल थी।  हज़ारो की भीड़ किन्तु लोग बात करने में  डर रहे थे । 
,विचित्र सी भुनभुनाहट   ,,, अँधेरे में  माहौल  बड़ा ही रहस्यमय सा निर्मित हो गया था।
नवरात्रि के अष्टमी तिथि को खप्पर का दर्शन करने शहर और गांवों से आए ग्रामीण रात्रि तक जागते है । 
हमने भी अपने क्वार्टर  के बारामदे से देखा  की  ( क्योंकि लोग भयवश  मेरे  कंपाउंड के अंदर  तक घुस आये थे  ) मिटटी के बड़ा सा बर्तन जिसमे अग्नि प्रज्ज्वलित थी में हवन सामग्री  लोभान ,धुप की खुशबु  दूर दूर तक फ़ैल रही थी। उसके प्रकाश में दूर से अन्धेरे में सफ़ेद चमकती हुई  नंगी तलवार पकडे    वे पास आते गये। 
लोग उसके सामने होने से बचने के लिए आजु बाज़ू में पिन ड्राप  साइलेंट के साथ  विचित्र सी भनभनाहट के साथ   चुपचाप    पीछे हटने  लगे।  
कुछ  लोग जोकि देवी माँ के  अगुवान और लंगूर  के रूप में थे ,इनके आगे आगे   दाहिने हाथ   में  नंगी तलवार , कुछ झंडा रखे हुए  चारो तरफ घूमाते  हुए खप्पर के लिए भीड़ का  रास्ता साफ  काफी दूर पहले से ही  कर रहे थे  ।
खप्पर  के पीछे ही माता की सेवा में लगे पंडितो   के द्वारा परंपरानुसार मंत्रोच्चारणों के साथ पूजा- अर्चना  करते चल रहे  थे  ।
 लोगो ने बताया कि इससे पूर्व मां परमेश्वरी मंदिर व मां चण्डी मंदिर के प्रमुख खप्पर धारक और भगवान का सकरी नदी में पंडो और स्वयं सेवकों द्वारा स्नान कराया जाकर  और देवी के प्रतीकात्मक पोशाक गहरे लाल रंग का कपड़ा धारण कराया जाने के बाद  कृत्रिम केश और मुकुट धारण कर बाएं हाथ मेें होम सामग्री से धधकता हुआ मिट्टी का खप्पर एवं दाएं हाथ में चमचमाती नंगी तलवार धारण कराया गया है ।
 जबकि रास्ता बनाने वाले अगुवान को सिर्फ तलवार धारण कराया गया है ।
 खप्पर जिला / पुलिस प्रशासन तथा नगर में नगरवासियों को मंदिर समिति के द्वारा आम सूचना दिए जाने के बाद परंपरागत निर्धारित मार्ग से होते हुए खप्पर  शहर के सभी देवी मंदिरो से होता हुआ  पुनः मंदिर प्रांगण पहुंचता है।
 इन मार्गो पर स्थापित देवी तथा देवताओं का विधिवत आह्वान किया जाता है।
जब वे पास आये तो देखा की  रौद्ररूप धारण कर परमेश्वरी मंदिर के खप्पर धारक तेज किलकारी मारते हुए नगर भ्रमण पर निकले अगुवान और खप्पर धारी के साथ द्रुतगति से  स्वयं सेवक तथा पीछे सुरक्षा के दस्ते   चल  रहे थे। 
उससे काफी आगे पुलिस की पायलेट टीम चल रही थी। जिस रास्ते से खप्पर गुजरता गया। उससे पहले भीड़ को पूरी तरह से शांत होती गई।
 खप्पर देखने हजारों की संख्या में दूर-दराज के ग्रामीण ट्रैक्टर , मिनीबस,टैक्सियों, मोटर सायकल, सायकल से सवार होकर कवर्धा आए थे। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं व बच्चे भी थे ।

खास बात यह होती है कि  अष्टमी के दिन मां चंडी व परमेश्वरी मंदिर से निकलने वाले खप्पर को देखने आसपास के ग्रामीण व दूरदराज के वनांचल क्षेत्रों से हजारों की संख्या में बैगा  बनवासी  लोग पहुंचते हैं, जिसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए पुलिस विभाग ने प्रत्येक   दोनों मंदिरों चौक-चौराहों में तीन-चार सिपाहियों के दल की ड्यूटी लगाकर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए  जाते हैं।
इनका मार्ग  मां चंडी और परमेश्वरी मंदिर से खप्पर  परंपरागत निर्धारित मार्ग  चण्डी मंदिर, खेड़ापति हनुमान मंदिर चौक, दंतेश्वरी मंदिर,ठाकुर पारा मार्ग,ऋषभ देव चौक,वीर स्तंभ चौक अंबेडकर चौक,जमात मंदिर मार्ग, शीतला मंदिर, करपात्री चौक, संतोषी मंदिर चौक, गुप्ता पारा से सिहंवाहिनी मंदिर होते हुए पुन:परमेश्वरी मंदिर तक का होता है। 
भारत  में ये प्रथा और भी कही   पर है इसकी जानकारी  आपसे अपेक्झित  है।

                                 (कवर्धा में खप्पर की परंपरा आज भी कायम है)

शनिवार, 3 सितंबर 2016

क्या आपने एक मुर्गे को चाकू से  दूसरे मुर्गे की जान लेने तक मनोरंजन हेतु  लड़ाते हुए देखा है ?
 (कुकड़ा गाली उर्फ़ मुर्गा बाज़ार ,गांव कस्‍बों में मनोरंजन का साधन )


                           (देखिये मुर्गों  के पैर  में चाकू बंधा  हुआ है  )
                    





मुझे याद है अपनी नौकरी के शुरुवाती  दिनों  की ।  जब  मैंने ट्राइबल एरिया से नौकरी शुरू की थी । अनेको  गाव बस्तर जिले के  काफी नजदीक लगे हुए थे ।  बस्तर में मुर्गा लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है ।

मै बाज़ार के दिन में  देखता था की उस दिन वहाँ पर  कुछ लोग बगल में मुर्गा दबाये उसे बड़े  लाड प्यार से  ले जा रहे है। लोगो से  पता लगा की इन गावो में मुर्गा लड़ाई होता है.।  ज्यादा  पता करने पर ज्ञात हुआ की " मुर्गा लड़ाई "  अत्यंत ही  रोचक होती है।
इस पर कही कही जीतने वाले मुर्गे के नाम से राशि तक लोग लगाते है।
बस्तर एवं उससे लगे  गांव  कस्‍बों में  तब यह मनोरंजन का एक प्रमुख   हिस्‍सा था ।

 वहां पर लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है, बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है।

 इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती, लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा लड़ाई कई पीढ़ियों से आम जिंदगी का मनोरंजन का हिस्सा बना हुआ है।

भले ही दुनिया पशु-पंक्षियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हों, मगर बस्तरमें जैसे कच्चे ,संबलपुर (भानुप्रतापपुर ) के इर्द गिर्द  व् लगे हुए धमतरी व बालोद जिले के इलाके में मुर्गा लड़ाई सबसे बड़ा और लोकप्रिय गेम था ।  मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार भी लगाया जाता था ।
 बाजार के पीछे मुर्गे की लड़ाई का अखाड़ा सजा रहता था और माड़ी, हंडिया, देसी दारू और अंगरेजी शराब के नशे में टुन्न लोग एक-दूसरे की मुर्गे की जान लेने को आतुर मुर्गे पर दांव लगाते रहते थे।

वैसे तो मुर्गे की लड़ाई का खेल आदिवासियों के लिए सदियों पुराना है ,बताया जाता  है लेकिन  काफी पहले इस खेल में मुर्गे की जान नहीं जाती थी,।
लेकिन मैंने  देखा की आदिवासियों के इस पारंपरिक खेल के वक्त मुर्गे के पंजे में तीखे नश्तर बांधे जाते है । और इस लड़ाई में प्रशिक्षित मुर्गे उतारे जाते हैं।
लड़ने के लिए तैयार मुर्गे के एक पैर में अंग्रेजी के अच्छर 'यू' आकार का एक हथियार बंधा हुआ होता है जिसे 'कत्थी' कहा जाता है.। ऐसा भी  नहीं  की यह कत्थी कोई भी  व्यक्ति बाँध सकता हो , इसे  बांधने की भी कला है।
 कतथी बांधने वालों को कातकीर कहा जाता है जो इस कला के माहिर होते हैं.कत्थी बांधने के बाद मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं.।

जब दो मुर्गे लड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं तो दर्शक के रूप में उपस्थित लोग अपने मनपसंद मुर्गे पर दांव लगाते हैं.। मुर्गे की लड़ाई आमतौर पर उनके शारीरिक छमता पर  10 मिनट तक चलती है. इस दौरान मुर्गे को उत्साहित करने के लिए मुर्गाबाज (मुर्गा का मालिक) तरह-तरह का आवाज निकालता रहता है, जिसके बद मुर्गा और खतरनाक हो जाता है.लड़ने के लिए मुर्गा को खास तौर पर न केवल प्रशिक्षण दिया जाता है,।
मुर्गे आपस में कत्थी द्वारा एक दूसरे पर वार करते रहते हैं. इस दौरान मुर्गा लहुलूहान हो जाता है. कई मौकों पर पर तो कत्थी से मुर्गे की गर्दन तक कट जाती है. मुर्गो की लड़ाई तभी समाप्त होती है जब एक मुर्गा घायल हो जाए या मैदान छोड़कर भाग जाए. एक अन्य मुर्गाबाज ने मुझे चर्चा में बताया कि मुर्गो को विशेष रूप से तैयार करने के लिए उसको पौष्टिक खाना तो दिया ही जाता है, कई बार ऐसे मुर्गो को मांस भी खिलाया जाता है. लड़ाकू बनाने के लिए मुर्गो को ना केवल मादा मुर्गे से दूर रखा जाता है, बल्कि उसे कई दिनों तक अंधेरे में भी रखा जाता है.। जीतने वाला मृत मुर्गे को भी  साथ में ले  रात की पार्टी मनाता है।
अन्दरूनी कुछ बाजारों और मेलों में 'मुर्गा लड़ाई' का खास प्रकार का आयोजन किया जाता है. कई इलाकों में प्रतियोगिता भी  आयोजित होती है। .