क्या आपने कभी जासूसी उपन्यास लिखने वाले इब्ने सफी बी ए का नाम सुना है , जिनकी किताबें तकियों के नीचे जरूर मिलती । अलमारियों की शोभा भले हि न बनती रही हों, ,,,, नही सुना न ?
( यदि कहू तो इब्ने सफी जासूसी दुनिया के प्रेमचन्द थे )
उन दिनों मैं 10वीं में पढ़ता था। इब्ने सफी के नाम से परिचित था, लेकिन उन्हें पढ़ा तब तक न था। उन दिनों मुहल्लों मे दो ‘आना’ मे लाइब्रेरियों पर इब्ने सफी के नावल किराए पर मिलते थे। पच्चीस पैसे में शायद दो दिन के लिए।
पर मुझे तो कभी भी दो दिन नहीं लगे। कहानी कहने का जादुई अंदाज, बला का थ्रिल और सस्पेंस नावल को बीच में छोड़ने ही नहीं देता था. एक शाम श्री इब्ने सफी के लिखे पुस्तक पुस्तक पढ़ते ही मुझे भी उनका दीवाना बना दिया।
श्री इब्ने सफी ने ढाई सौ से भी ज्यादा जासूसी उपन्यास लिख कर वे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय व सबसे ज्यादा बिकने वाले जासूसी उपन्यासकार बन गए थे।इब्ने सफी का रचना काल (1952-1980) सियासी-समाजी नजरिए से उथल-पुथल का जमाना है।
उन्होंने समय-समाज की हर चाल और आहट को पकड़ने की कोशिश की और जहां भी, जितना भी मौका मिला, पूरी रचनात्मकता के साथ अपने उपन्यासों का हिस्सा बना लिया।इब्ने सफी का रचना संसार रहस्यमय भी है और रंगारंग भी।
उर्दू और हिंदी पाठकों की कई पीढ़ियों की यादों का वे हिस्सा बने रहे है . जिनकी पुस्तके पहले कौन पढ़ेगा को लेकर बचपन मे हम भाइयो मे आपस मे झगडा भी हो जाता था. इनकी जासूसी पुस्तक पाठ्यपुस्तक के भीतर छिपा कर भी पढ़ी जाती थी .
अब्बास हुसैनी नूरउल्लाह रोड स्थित जासूसी दुनिया के प्रकाशक थे .एकदम सामान्य सादा सा प्रकाशन . लेकिन पुरे पुस्तक हाथो हाथ बिक जाते थे. यह बिलकुल सही बात थी की लोग उनके आगामी पुस्तक की प्रतिक्छा करते रहते थे लोग एडवांस मे पुस्तक बुक कराके रखते थे .
जासूसी साहित्य की अपनी सीमाएं हैं और जरूरतें भी, लेकिन इब्ने सफी जुर्म और मुजरिम के चेहरे बेनकाब करने के साथ-साथ तफ्तीश के बहाने हाथ आए समाज के काले-सफेद कोनों को भी उजागर करते चलते थे .
आदमी कितना गिर सकता है, इसका अंदाजा करना बहुत मुश्किल ,,,,,,,, जो की इनके उपन्यास पढ़ कर सोचने को मजबूर हो जाना पड़ता था.
इब्ने सफी ने कुल 52 साल की उम्र पाई, जुलाई 1980 मे अपने चहते रचनाकार की अचानक मौत की खबर ने लोगों को बेचैन कर दिया था। इब्ने सफी की मौत की बातें सबके लिए ये अपना गम था।
इब्ने सफी के उपन्यासों के प्लाट बड़े तहदार रहे हैं। शब्दों से उन्होंने चलते-फिरते चित्र बनाए हैं। लफ्जों की ऐसी तस्वीरें कीं, पढ़ने वाला खुद को उसका हिस्सा समझने लगता है।
मनोविज्ञान की समझ ने उन्हें दृष्टि और प्रभावी काट दी। मुजरिम की घिसी-पिटी तलाश की बजाए वो उन सोतों तरफ भी इशारा करते हैं, जो जुर्म और मुजरिम उगल रहे हैं। इब्ने सफी ने अपने कुछ नावलों में साइंस फिक्शन और साइंस फैंटेसी का भी सहारा लिया है।
वो पाठक को एक ऐसी फिजा में ले जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उसे अचरज का सामना होता है। पात्र गढ़ने में भी इब्ने सफी ने महारत का सुबूत दिया है। विनोद , फरीदी, हमीद, इमरान जैसे हीरो ही नहीं, संगही, हम्बग, फिंच, अल्लामा दहशतनाक, डा. नारंग, डा. ड्रेड, जेराल्ड, थ्रेसिया जैसे विलेन भी याद रह जाते हैं।
इब्ने सफी जुर्म को ग्लैमराइज नहीं करते। वो जुर्म से नफरत सिखाते हैं। साजिशों से आगाह करते हैं। ये भरोसा भी कि जुर्म और मुजरिम का अंजाम शिकस्त ही है। जीत आखिरकार अमन और कानून की ही होगी।
जिनके जासूस चरित्र कर्नल विनोद और सहायक हमीद तथा खिलंदरा चरित्र राजेश जो की ऊपर से जोकर की तरह था ,तो अन्दर से बहुत ही ज्यादा चुस्त चालक जासूस जो बॉस को नाराज़ करता था .लेकिन कठिन से कठिन केस आने पर बॉस का पसंदीदा जासूस भी .हमीद और राजेश के चरित्र लडकियों से फ्लर्ट करने का रहता था. लेकिन अंत मे ज्ञात होता की ये भी तो केस सुलझाने के लिए किया गया था .
बड़े प्रकाशकों ने हिंदी और अंग्रेजी में उनके उपन्यास छापे। मौत ने उन्हें भले ही हमसे छीन लिया, लेकिन वो जिंदा हैं अपनी रचनाओं में। अपने पात्रों में। अपने लाखों चाहने वालों के दिल में।
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