मंगलवार, 30 अगस्त 2016

जान लेवा खूनी मेला:, पत्थर मारने की 300 साल पुरानी परंपरा ,क्या आप  मेला में  भाग लेकर   देखना चाहेंगे ?

मित्रो क्या आप किसी ऐसी जगह  की मेला में  भाग लेकर   देखना चाहेंगे , जहां  पर की  पुरे दिन सिर्फ  एक दूसरे पर पत्थर मारकर   एक दूसरे की खून बहाया जाता है। आइये आपको इस जगह के बारे में बताता हु। 
दोस्तों मुझे अविभाजित मध्यप्रदेश के बैतुल जिले में भी रहने का मौका मिला है। तभी पोला का त्यौहार नज़दीक था । बैतूल जिले में भी पोला (बैलों का त्यौहार ) का त्यौहार पुरे माह में अलग अलग गाँव में धूमधाम से  मनाया जाता है। वहाँ पर भोपाल और नागपुर (महाराष्ट्र ) दोनों का मिला जुला कल्चर है । इस मौके में पीने -पिलाने का दौर ,बैल दौड़ , जुआ आदि भी होना ख़ास जरूरी है ।


मेरे साथ के सहकर्मीयो ने इस बार इच्छा जाहिर की कि सर इस बार पांढुर्ना गोटमार मेला देखने चलते है  ।  मेरे लिए गोटमार शब्द नया था।  इसलिए मैंने पूछा की ,,,ये क्या होता है ?
उन्होंने बताया ,,,की सर आप तो जानते है , यहाँ पर मराठी भाषा बोलने वाले नागरिकों की इस क्षेत्र में बहुलता है । और मराठी भाषा में गोटमार का अर्थ पत्थर  से मारना होता है। और महाराष्ट्र की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्ना में हर वर्ष पोला के अगले दिन गोटमार मेला लगता है । ये जगह नागपुर और बेतुल के बीच रेलवे लाइन में है। 
वहाँ शब्द के अनुरूप मेले के दौरान पांढुरना और सावरगांव के बीच बहने वाली नदी के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मार मारकर एक-दूसरे का लहू बहाते हैं। 
मैंने कहा- ऐसे क्यों , ये तो गलत बात हुई  है न ?   लोग  तो घायल भी हो जाते होंगे ?
 हां सर इस पथराव में कुछ लोगों की   गत  वर्षो में मृत्यु के मामले भी हुए हैं।उनकी पूरी बात सुनने से समझ में आयी की ,
वास्तविकता में दो कसबे के बीच एक नदी बहती है।नदी के उस पार सावरगांव व इस पार को पांढुरना कहा जाता है।
यहां पोला धूमधाम से मनाया जाता है। और  इसी दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है। उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है।
 दूसरे दिन सुबह होते ही लोग उस वृक्ष की एवं झंडे की पूजा करते है । और फिर प्रात: 8 बजे से शुरु हो जाता है ढोल ढमाकों के बीच भगाओ-भगाओ के नारों के साथएक दूसरे को पत्थर मारने का खेल।कभी पांढुरना के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी। और यह क्रम लगातार चलता रहता है। दर्शकों का मजा  और उन्माद दोपहर बाद 3 से 4 के बीच बढ़ जाता है।
 जबकि पाढुर्णा वालों खिलाड़ी चमचमाती तेज धार वाली कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए उसके पास पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये लोग जैसे ही झडे के पास पहुंचते हैं साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की भारी मात्रा में वर्षा कर इनको पीछे हटा देते हैं।शाम को पांढुरना पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ जय चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं । जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके गले मिलकर मेल-मिलाप करते है।


और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है। झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है। पत्थरबाजी की इस परंपरा के दौरान जो लोग घायल होते है, उनका शिविरों मे( मेला स्थल )उपचार किया जाता है और गंभीर आहत  हुए  मरीजों को नागपुर भेजा जाता है।
इस मेले के आयोजन के संबंध में कई प्रकार की किवंदतियां हैं। इनमें सबसे प्रचलित और आम किवंदती यह है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुरना के किसी लड़के से प्रेम हो गया था। दोनों ने चोरी छिपे प्रेम विवाह कर लिया। पांढुरना का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था।
उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था और जब लड़का लड़की को लेकर नदी से  उस पार  ले जा रहा था ।
तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू किया। जानकारी मिलने पर पहुंचे पांढुरना पक्ष के लोगों ने भी जवाब में पथराव शुरू कर दी। इस पत्थरों की बौछारों से इन दोनों प्रेमियों की मृत्यु जाम नदी के बीच ही हो गई।दोनों प्रेमियों की मृत्यु के पश्चात दोनों पक्षों के लोगों को गलती पर  शर्मिंदगी का एहसास हुआ।
और दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर किले पर माँ चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संभवतः इसी घटना की याद में माँ चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है।
आस्था से जुड़ा होने के कारण इसे रोक पाने में असमर्थ प्रशासन व पुलिस एक दूसरे का खून बहाते लोगों को असहाय देखते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते।निर्धारित समय अवधि में पत्थरबाजी समाप्त कराने के लिए प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों को बल प्रयोग भी करना पड़ता है।
कई बार प्रशासन ने पत्थरों की जगह तीस हजार रबर की छोटे साइज की गेंद उपलब्ध कराई थी, परंतु दोनों गांवों के लोगों ने गेंद का उपयोग नहीं करते हुए पत्थरों का उपयोग ही किया था। थकहार कर प्रशासन ने दोनों गांवों के लोगों को नदी के दोनों किनारों पर पत्थर उपलब्ध कराना शुरू किया था।
लेकिन वर्ष 2009 में समाचार पत्र में पढ़ा था की मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के बाद छिंदवाड़ा जिला प्रशासन ने पांढुरना एवं सावरगांव के बीच होने वाले गोटमार मेले में पत्थर फेंकने पर रोक लगाते हुए मेला क्षेत्र में छह दिनों के लिए धारा 144 लागू कर दी।
इस गोटमार मेले में समय के साथ कई बुराइयां भी शामिल हो गई हैं। गोटमार के दिन ग्रामीण मदिरा पान करते हैं तथा प्रतिबंधों के बावजूद गोफन के माध्यम से तीव्र गति और अधिक दूरी तक पत्थर फेंकते हैं । जिससे दर्शकों के घायल होने का खतरा बढ़ जाता है।



तथा गोफन से पत्थर फेंकने वालों की वीडियोग्राफी भी कराई जाती है। प्रतिबंध के बावजूद भी पत्थर फेंकने वाले खिलाड़ी एवं अन्य कई लोग शराब के नशे में घूमते दिखाई पड़ते हैं।
भले ही युग बदल गया हो, मगर परंपराएं अब भी बरकरार हैं। उनकी बातों को सुनकर मुझे इस खून खराबे वाली जगह में जाने की इच्छा नही हुई। कौन जाकर अपनी सर फुड़वाये।
मेरे जो सहकर्मी गए भी थे  जब वे लौटे तो तो एक के सिर पर तो एक के ऊँगली में पट्टी बंधी हुई थी। और जिसे वे माता जी के आर्शीर्वाद बता कर बड़े  खुश थे।





सोमवार, 29 अगस्त 2016

कैलाश गुफा बस्‍तर में परिवार, :-

बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से दक्षिण में 35 किलोमीटर की दूरी पर कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। यह उद्यान अपने जलप्रपातों, गुफाओं एवं जैव विविधता के लिये प्रसिद्ध है। 
कैलाश गुफा बस्‍तर जिले के कांगेर घाटी राष्‍ट्रीय उद्यान में स्थित एक प्राकृतिक गुफा है. यह जिला मुख्‍यालय जगदलपुर से दक्षिण पूर्व की ओर फैली हुई तुलसी डोंगरी की पहाड़ी पर स्थित है. यह गुफा 250 मीटर लंबी तथा 35 मीटर गहरी है. इस गुफा में जगह- जगह शिवलिंग जैसी आकृतियां बनी हुई है, जिस कारण से इस गुफा को कैलाश गुफा के नाम से जाना जाता है. यह गुफा कुटुमसर गुफा के समान दिखाई पड़ती है. इस गुफा के बाहर कैलाश झील स्थित है.कोटमसर से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके बड़े-बड़े हाल किसी राजा के दरबार सा भान देते हैं एवं चूना पत्थर की आकृतियां शिवलिंग के समान जान पड़ती हैं । इसलिये इस गुफा का धार्मिक महत्व भी हैं। ऊँचाई पर तथा 2500 मीटर लम्बी है।चूनापत्थर के जमाव के कारण स्टलेगटाइट, स्टलेगमाइट एवं ड्रपिस्टोन जैसी संरचनायें यहाँ पर भी है। छत पर लटकते झूमर स्टलेग्टाइट, जमीन से ऊपर जाते स्तंभ स्टलेगमाइट एवं छत एवं जमीन से मिले बड़े-बड़े स्तंभ ड्रपिस्टोन के भी है। 

रविवार, 28 अगस्त 2016


 जार्ज पंचम के आगमन पर वर्ष 1910  में बना रेस्ट हाउस सूपखार  बालाघाट


बालाघाट जिले के कान्हा पार्क अंतर्गत गढ़ी बफर जोन क्षेत्र के समरिया /  सूपखार ग्राम जिस में जंगल के बीच   यह  बेहद खास रेस्ट हाउस है। ब्रिटिश शासनकाल में जार्ज पंचम
के आगमन पर वर्ष 1910 में निर्मित   रेस्ट हाउस की छत को घास से ढंका गया   था। जार्ज पंचम को घास के कारण मिलने वाली ठंडी हवा ने  काफी आकर्षित किया था।  
तनशी घास से ढंका यह रेस्ट हाउस मौसम बदलने के साथ ही अपनी तासीर भी  बदल लेता है।  1910 के इतिहास क़ो  यहाँ  पर  खूबसूरती से  संवारने काफी प्रयास किया गया है । यह बाहर से देखने में सामान्य झोपड़ी से भी ज्यादा अहमियत नहीं रखता।
इस जगह तक प्रिंस ऑफ़ वेल्स ने भी कान्हा की यात्रा के दौरान देखी  थी। 
पुराने जमाने की मोटे कपड़ो से निर्मीत हाथ से कमरे की बाहर रस्सी पकड़ कर  झूलाने वाले पंखे ,तथा बढ़िया पेंटिंग रेस्ट हॉउस को और भी खूबसूरत बनाती थी।
रेस्ट हाउस के समीप करीब 20 हेक्टेयर भूमि पर उन दिनों चीड़ पाईन का प्लांटेशन कराया गया जाकर खूबसूरती को संवारने काफी प्रयास किया गया है । तथा रेस्ट हॉउस के पास  ही कॉफी  के पौधे भी  दीखते है ।  बारीक सुई जैसे पत्तो वाली   पेड़ और ( हार्ड सुन्दर फल जो की सजावट की वस्तुओ को बनाने के काम भी आती है ) प्रकृति का इतना सुन्दर मनोरम नजारा देख   आने वाले भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं। 
जिसके बीच घूमने पर आपको किसी भी हिल स्टेशन  के सड़को में घूमने  से किसी भी मायने में कम नही लगेगा। 
लेकिन अब आपको इस रेस्ट हाउस और  इस रोड में घूमने हेतु अनुमति की आवश्यकता होगी। क्युकी  एक बार टाइगर के द्वारा  चौकीदार के बेटे पर अटैक कर खा जाने की घटना हो चुकी है।  
                             [सूपखार रोड में  स्वयं का फोटो ]
इस पंक्ति का लेखक भी   इस घटना के कुछ दिन पहले हि  उस जगह तक  सैर पर परिवार सहित  गया था। और आती हुई  शेर की दहाड़ की  आवाज़ सुन कर तुरंत ही  वह
से वापस होने में अपनी भलाई समझे  थे।
यह जगह मध्य प्रदेश  सरकार द्वारा प्रोजेक्ट टाईगर के अंतर्गत  शामिल किये गये है । यहां के अधिकांश वन दक्षिण उष्ण कटिबंधीय, नम मिश्रित पर्णपाती वन हैं।
पार्क के 24 प्रतिशत भाग में साल वन, 66 प्रतिशत भाग में मिश्रित वन तथा 9 प्रतिशत भाग में घास के मैदान है। यहाँ   में इकोसिस्टम और  वन्य प्राणी संरक्षण का रोचक इतिहास है। यहां अनेक दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीव व् पक्षी  व् अन्य जंतु  भी  पाये जाते हैं। उस समय यह जगह  सतपुड़ा पर्वत के मैकल श्रेणियों में आने से पुरे रेंज में  वन्य जीव के  विस्तार हेतु  यह बफर जोन के रूप में विकसित था । 
शिकारियों के  साथ नक्सलियों के द्वारा पार्क में आग लगाकर क्षति पहुंचाने की घटना भी  यहाँ पर  घटित हो चुकी है। इन विषमताओं के पश्चात भी  घास, फूस से बने  इस रेस्टहाउस के पास में सबसे खूबसूरत इलाका  है, यहां  की  प्राकृतिक  ठंडी हवा  काफी आकर्षित करते है  । 

यहाँ  कई प्रकार के पशुओं जैसे बाघ, तेंदुआ, ढोल (जंगली कुत्ते), गौर  (बाईसन), चीतल, सांभर, चोसिंघा, जंगली सूअर आदि को रहने एवं अपना भोजन ढूँढने के लिए सहायक हैं। दूधराज, मोर, सफ़ेद पेट वाला कटफोड़वा, भूरा कटफोड़वा, क्रेस्टेड सर्पंएंट ईगल, चेंजबल हॉक ईगल, वाइट रम्प  जैसे दुर्लभ पक्षी भी   आसपास  के घने जंगल में दूर तक  बहुतायत से मिलते है।
                    (रेस्ट हाउस के पास इसी तरह हिरणो का झुण्ड घूमते रहता है )

 विश्राम गृह  का  इलाका के पास  अनेको  जानवर  नदी में पानी पीने  आते   हुए  दीखते है।  और जो की  नदी किनारे की नरम घांस को  चरते  रहते  है  ।
 हमने अनेको बार  मन भर कर प्रकृति के इन खूबसूरत नजारों की  जी भर कर निहारा हुआ है । ये जगह  इकोसिस्टम का अच्छा उदाहरण है । 

 आपकी किस्मत अच्छी है तो तेंदुआ ,वाइल्ड बोर भालू आदि भी यह बिठली गाव सेलेकर सुपखर के बीच में प्रातः /संध्या गोधूलि बेला  में  दिख जायेंगे।   तेंदुआ अपनी खाल के रंग और छुप कर बैठने के तरीके से परिवेश   में इतना घुल मिल जाता है की वाइल्डलाइफ एक्सपर्ट्स भी आसानी से उसे देख नहीं पाते । 
उद्यान में बंजर एवं हालोन नामक दो घाटियां है। मध्य प्रदेश के सरकार द्वारा प्रोजेक्ट टाईगर के अंतर्गत  शामिल किये गये है । यहां के अधिकांश वन दक्षिण उष्ण कटिबंधीय, नम मिश्रित पर्णपाती वन हैं। पार्क के 24 प्रतिशत भाग में साल वन, 66 प्रतिशत भाग में मिश्रित वन तथा 9 प्रतिशत भाग में घास के मैदान है। यहाँ   में इकोसिस्टम और  वन्य प्राणी संरक्षण का रोचक इतिहास है। 
 बालाघाट जिले की सीमा से लगा सूपखार रेंज का यह इलाका प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है, किन्तु  अब  पहाड़ी मार्ग टूट-फूट गये हैं, पुलियों के टूटने से वर्षाकाल में  आवागमन बंद रहता है । कवर्धा जिले के मुख्यालय से कान्हा / बालाघाट  को जोड़ने वाला यह एकमात्र नज़दीक का मार्ग है।
                            ( सूपखार रेस्ट हाउस के पिछवाड़े )
सूपखार के  पीछे की तरफ से दृश्य 




शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

तेंदुआ  का जोड़ा मारे तरफ बढ़ने लगा.....  और सीट के नीचे पेंट गीली हो गयी...........?

शिकार कथा )

देवेन्द्रकुमार शर्मा 113,सुंदरनगर रायपुर छत्तीसगढ़


बात तब कि है ,जब  मै अविभाजित मध्य प्रदेश के राजनांदगांव जिले के कवर्धा (वर्तमान में जिला मुख्यालय) तहसील के ब्लॉक बोडला में विकास खंड अधिकारी  के पद में पदस्थ था। तहसील कवर्धा के एस. डी.ओ के पद में पदस्थ श्री शेखावत जी का ट्रांसफर होउनके स्थान में श्री  ए के सिंह पदस्थ हुए थे। 
वे कान से कम  सुनते थे ,तो लोगो ने उनका नाम भैरावत कर दिया। उसी समय मेरा भी स्थानांतरण  मुंगेली को हो गया था।  किन्तु कलेक्टर साहब ने रिलीव नही किया था, वे मेरे काम से तो खुश थे  । साथ ही उनके जंगल भ्रमण में भी साथ ही रहता था
 और हर बार हम लोग टाइगर ,लेपर्ड जैसे दुर्लभ प्राणी सुपखार (चिल्फी से १८  कि.मी ) से लेकर कान्हा किसली के बीच देख लेते थे।श्री सिंह को ये बात ज्ञात नही था। मै जब उनसे मुलाकात के लिए गया । 
 उन्होंने मुझे कहा,आप अभी तक रिलीव नही हुए है। मैंने कहा कलेक्टर से बात कर आप कर दीजिये ,और वापस बोडला को आ गया।शाम 5 बजे होंगे की एस.डी.ओ. साहेब बोडला आये ,मुझे मेरे क्वार्टर से बुलवाया। में जैसे ही आया ,उन्होंने कहा शर्मा आप नाराज़ हो ,क्या मुझसे ,मैंने कहा नही सर क्यों आप ऐसे क्यों बोल रहे है। 
उन्होंने कहा मैंने तुम्हारे रिलीव की बात कलेक्टर से की ,उन्होंने कहा है ,जब तक मै न बोलू ,तुम शर्मा को भारमुक्त नही करना।  और पता लगा है यार आप उन्हें शेर आदि दिखा देते हो। (मुझे लगा जैसे शेर मेरे पालतू है ,और उनके कान पकड़ कर खड़ा कर देता हु ) मै कुच्छ नही बोला। 
तब उन्होंने कहा  मेरी फैमिली भी आने वाली है ,उनको भी दिखा देते है। आप साथ में चलेंगे न। मैंने भी  हामी  भर दी।
 अगले 2nd सैटरडे हम लोग शाम ०३ बजे बोडला से जीप में चिल्फी पहुंचे। मेरी बंद गाड़ी थी ,उनके गाड़ी के साइड के हुड खुलवा दिए। और गाड़ी में  स्पॉट व् अन्य लाइट भी फ़ीट करा लिया  ,ताकि अँधेरे में दूर तक नज़र डाली जा सके।







वैसे जंगल भ्रमण का असली समय गोधूलि बेलासूर्यास्त के वक्त को मानते है. क्यूंकि उस समय जंगली जानवर पानी पीने जलस्रोत के नज़दीक आते है। उनके आने का भी एक क्रम होता है ,और घास खाकर जीने वाले ,फिर मांसाहारी हिंसक जानवर आते जाते है  
चिल्फी से सूपखार व् बिठली ग्राम के बीच कई नाले ,छोटे तालाब  आदि है और ६ से ७ के मध्य हम लोग रेस्ट हाउस से चल पड़े। 


 चिल्फी नाके (वन)  के आगे से जंगल मंडला जिला और फिर बालाघाट का एरिया प्रारम्भ होता है। शाम समाप्त होकर कुछ कुछ अँधेरा सा छाने लगा था। (सूपखार एरिया  कान्हा किसली के बफर जोन है काफी  घांस ,पानी का श्रोत झाड़ी फिर लम्बे साल व् अन्य प्रजाति के पौधे व् फिर विश्रामगृह के आसपास पाइन प्लांटेशन ,तथा कॉफी के पौधे भी लगे है । ,
 काफी पुराना सर्किट हाउस है जोकि छप्पर आदि घास के है व् अंग्रेज़ो के फनी चित्र बना कर कार्टून के रूप में भी लगे है )

खैर हम लोग छोटे मोटे जंगली जानवर देखते आगे बढ़ते जा रहे थे। आगे एक छोटी सी घाटी और फिर एक गाँव जहा सिर्फ वन विभाग के लोग ही रहते है। 
घाटी के पास अँधेरा ज्यादा हो गया ,तो हमलोगो ने लाइट आदि जला ली। अब खुले जीप में मै  श्री सिंह। तहसीलदार श्री महिलांगे व मै ड्राइविंग सीट में बैठ कर गाड़ी चलाने लगा ,ड्राइवर श्री खान के हाथो में स्पॉट लाइट दे दिया ,जिसे वे गाड़ी के पिच्छे खड़े होकर जंगल में जानवर दीखते ही फोकस करने लगे।

 पीछे बंद जीप में श्री सिंह का परिवार बैठा था।  जैसे ही घाटी से नीचे उतरे मुझे दो लालटेन जैसे चमकते नज़र आये। मैंने गाड़ी स्लो कर ,ड्राइवर को उसपर फोकस करने कह! .,,,,,,,,आगे गाँव के कुत्तो की भोकने की आवाज़ दूर से आ रही थी। सामने चमकदार चमड़ी वाला युवा तेंदुआ बैठा था. यह चीते से कुछ छोटा व् इसकी चमड़ी के ऊपर के काले धब्बे भरे हुए न दिख कुछ धब्बे के बीच खली स्पॉट  जैसे  होता है। 
किन्तु यह भी डेंजरस ही होता है ,ये गाव से बकरी ,कुत्ते आदि को अपना शिकार बनता है। खैर वो बीच सड़क में आराम से बैठा हुआ था ,व् लाइट पड़ते ही ,हम लोगो की और देखने लगा। मैंने गाड़ी को फर्स्ट गियर में डाल स्लो चलते हुए करीब ४०५०  फ़ीट के अंतराल में पहुंच गया। व् गाड़ी में ब्रेक लगा लाइट में उसे देखने लगे उसकी मुछो के बाल दूर से ही लाइट में चमक रहा था।
 और वो हिकारत की नज़र से हमे देख रहा था। किन्तु बैठा ही रहा। तभी अचानक एक और तेंदुआ (शायद ये नर मादा थे ) अचानक अँधेरे जंगल से बाहर आ कर उसके पास खड़ा हो गया ,और गुर्राने लगे। अब हमारी हालत अंदर से पतली होने लगी की कहि ये अटैक न कर दे।
 मैंने पीछे गाड़ी के ड्राइवर को गाड़ी पीछे करने का इशारा किया ,उसने गाड़ी रिवर्स करने की चेस्टा में गाड़ी को बंद कर लिया। अब मेरी गाड़ी भी पीछे नही जा सकती थी। 
इस खटपट से अचानक बैठा हुआ तेंदुआ (लेपर्ड) उठ के अंगड़ाई लेकर पूछ को हिलाते हुआ हमारे तरफ बढ़ने लगा। तभी मुझे लगा की मेरे पेंट के नीचे गिला हो रहा है। कुछ देर में पीछे वाले तेंदुआ ने सामने वाले को देख अलग स्वर में गुर्रा कर उसके अपने सर से हलकी सी टक्कर दी ,(मानों उसने कहा होगा जाने भी दो यारो ,इनके पीछे क्यों अपनी शाम ख़राब करते हो।
 और वे जंगल में हमे देखते देखते घुस गए। तब जान में जान आई। तहसीलदार ने तब श्री सिंह को कहा सर ये बबलू ने पेशाब कर दिया है। बबलू सिंह साहेब क ४,५ साल का नाती था जो हमारे ही बीच में बैठा था और डर कर पेशाब कर बैठा थाजिसके कारण ही मेरी भी पेंट गीली हो गई थी।




                         विश्राम कर रहे है भगवान 2000 साल से 






मध्य प्रदेश के उमरिया जिले में बांधवगढ़ है ,जो की नैशनल पार्क भी होने से वर्ष भर पर्यटको से गुलज़ार रहता है। बांधवगढ़ नाम एक पहाड़ के नाम पर रखा गया है जिसके अंदर एक किला है। इसी रहस्यमय और अद्भुत किले के अंदर है,भगवन विष्णु की शयन मुद्रा में 2000 वर्षपुरानी विशालकाय मूर्ती। इस किले के अंदर एक सुरंग है जो की घने जंगल के रास्ते रीवा तक जाती है ऐसा लोग बताते है। 

किले के अंदर ही भगवान् विष्णु की 12 अवतार की प्रतिमाये पत्थरो को तराश कर बनायीं गयी है ,जिसमे से कच्छप अवतार और शेष सय्या पर आराम की मुद्रा में भगवान विष्णु के भी दर्शन होते है। 
घने जंगल और आसपास घूमते हिंसक वन्य प्राणियों की वजह से वर्तमान में किले में प्रवेश बंद है।








चलन से बाहर होते जा रहे रहचुली झूले

 किसी भी समारोह, , उत्सव, , मेला बाज़ार या मँडई में दिखने वाली रौनक का सीधा-सीधा ताल्लुक उस क्षेत्र की फसल की स्थिति पर तथा आर्थिक स्थिति से होता है।
फसल ठीक रही तो चहलपहल और उल्लास साफ साफ देखने में आता है। मँडई में रौनक और लोग अत्यधिक प्रसन्नचित्त नज़र आते हैं । 
और लड़के-लड़कियाँ बन-ठन कर घूमते हैं!
साल भर की प्रतीक्षा के बाद तो आती है उत्सव, मेला मँडई। और आती ही इसीलिये है कि लोग आपस में मेल-मुलाक़ात कर सकें ।
 आनन्द और उमंग के दो क्षण आपस में मिल कर गुज़ार सकें । कल का किसे पता है ।
और फसल की हालत कमज़ोर रही तो सारा उल्लास फीका पड़ जाता है ।
आधुनिकता के चलते अब बड़े कस्बों में लगने वाले मेलों में रहचुली झूलों की पूछपरख कम हो गई है। रहचुली झूलों की जगह आधुनिक विशाल झूलों ने ले ली है।  
कभी मेले के शान रहे रहचुली झूले वर्तमान में चलन से बाहर होते जा रहे है। , ये झूले खत्म हो रहे है।
पर इनकी मधुर चररर,, चु की आवाज और रंगीनी अभी दूरस्थ ग्रामीण एरिया में कायम हैं
झूले में लड़कियों की झुण्ड ,लड़को के उत्साह का केंद्र होता है। 
ऊपर से नीचे रुमाल का गिराना ,और नीचे लड़कियों द्वारा लपक लेना।फिर  ऊपर से लड़कियों के द्वारा रुमाल का गिराना और लड़को द्वारा लपक लेना   ।
 इनके मस्ती और उमंग में जोश भर देता है जो की इसी झूला में ही संभव है।
आधुनिकता के चलते अब बड़े कस्बों में लगने वाले मेलों में रहचुली झूलों की पूछपरख कम हो गई है। 
रहचुली झूलों की जगह आधुनिक विशाल झूलों ने ले ली है। कभी मेले के शान रहे रहचुली झूले वर्तमान में चलन से बाहर होते जा रहे है ।
कम पूछ परख के चलते इससे व्यवसाय करने वालों को अब रोजी रोटी के लिए दूसरे व्यवसाय की ओर रूख करना पड़ रहा है।
एक तो इन झूलो को लाने ले जाने में परिवहन व्यय ,मेला शुल्क ,झूला झुलाने हेतु श्रमिक फिर स्वयं की व्यस्था अब इनको महंगा लगने लगा है।
पिछले 30 से 35 वर्षों से वे झूला का व्यवसाय कर रहे है, इनका कहना है की अब लागत नही निकलता तथा साथ ही गांव के लोग भी शहरीकरण की वजह से पहले जैसे इन झूलो में नही बैठते है।
 इसलिये इस झूले से व्यवसाय करने वाले लोग अब शहरों में इन झूलों को नहीं ले जाने हेतु मन बना लेते है। मीना बाजार में आए विभिन्न प्रकार के आकर्षक झूलों ने रहझूला को चलन से बाहर कर दिया। गांव के मेलों में इसकी पूछ परख होती है। 
अनेको जगह  में ग्राहकों के अभाव में झूले बंद पड़े है।शहरों में अब रहचुली झूलों का चलन खत्म हो रहा है।क्योंकि गांव से शहर तक आने व यहां पर धंधा नहीं होने से उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ता है।

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Dk Sharma

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

कुर्सी मत छोड़िए आप  ,बड़े मुश्किल से मिलता है?


श्री पटवा जी ने मुझे कहा


वर्ष १९८३-८४ के आसपास श्री सुन्दर लाल पटवा जी विधानसभा म. प्र. में विपक्ष के नेता थे। उन्होंने बस्तर से भोपाल तक पदयात्रा प्रारम्भ की थी। उसी दौरान वे बोडला (तब राजनांदगोनजिला )पहुंचे। कवर्धा से पौड़ी होते हुए. तब कवर्धा में गिनती के भाजपाई थे। आरएसएस जरूर था। श्री छेदी लाल सोनी। श्री लुणिआ ,डॉ रमन सिंह(इनकी राजनीती की शुरुवात ही तब हुई थी ). आदि आदि व् बोडला के नेता भी संग में मेरे दफ़्तर आये. 

उनके द्वारा मुझे पुरे कार्यक्रम की जानकारी दी गई.

उनकी चिंता श्री पटवा जी के रुकने की व्यस्था को लेकर थी। उनके द्वारा इस बावत निवेदन भी किया गया। मैंने तत्काल अनुविभागीय अधिकारी श्री शेखावत व् उनके माध्यम से कलेक्टर से बात कि. प्रोटोकॉल के अनुसार उन्हें शासकीय सुविधा का लाभ दिया ही जाना था.!

खैर पौड़ी में कोई भी आरामगाह टॉयलेट सहित नही थी ,सिवा ग्रामपंचायत भवन के। अमीनउद्दीन वह! के सरपंच थे। उन्हें समझा कर पंचायत भवन की साफ सफाई करा दी गयी। भोजन आदि की व्यस्था भी। २रे दिन बोडला स्थित डाकबंगला में व्यस्था थी।

खैर पौड़ी में कोई भी आरामगाह टॉयलेट सहित नही था ! ,सिवा ग्रामपंचायत भवन के। अमीनउद्दीन वह! के सरपंच थे। उन्हें समझा कर पंचायत भवन की साफ सफाई करा दी गयी। भोजन आदि की व्यस्था भी। २रे दिन बोडला स्थित डाकबंगला में व्यस्था थी।

अतः मुझे लगा की वे भाषण के बाद सीधे चिल्फी की और बढ़ लेंगे। प्रोटोकॉल के नियमो के भीतर पहले ही मिल चुके है। व्यस्था से संतुष्ट ही थे वे। व् अगले दिन मंडला बॉर्डर में बिदा करके आने का तय था। 

भाषण ख़त्म हुआ ,हम लोग अपने काम में व्यस्त थे ,की पटवा जी कार्यकर्त्ता सहित मेरे कमरे में आ पहुंचे! मैं हड़बड़ा गया ,चूँकि वे कैबिनेट स्टार मिनिस्टर की सुविधा प्राप्त थे ,ही वे ,मई अपनी कुर्सी छोड़ उन्हें उस पर बैठने का निवेदन किया। 

तब पटवा जी ने हसते हुए कहा '' बिडिओ साहब कुर्सी बड़े मुश्किल से मिलती है ,आप छोडो मत बैठ जाइये। 

फिर उनके एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया की उन्हें टॉयलेट जाना है। उस टाइम सुविधा सिर्फ मेरे क्वार्टर में ही थी ,साथ में उन्हें मैंAPNE क्वार्टर ले गया। फिर चाय पानी के बाद उन्हें BIDA किया। उस समय कांग्रेस शासन थी ,अर्जुन सिंह जी मुख्यमंत्री थे। स्थानीय विधायक के उक्त सम्बन्ध में क्वेश्चन विधानसभा के भी झेले।


सोनपुर ग्राम के 2 शिवलिंग

दुर्ग जिले के पाटन ब्लॉक के रायपुर सीमा से लगा प्राचीन ग्राम तरीघाट जहा की संस्कृती सिरपुर से भी प्राचीन माना जाता है ,से ही लगा हुआ खारून नदी के तट पर सोनपुर ग्राम बसा हुआ है। यहाँ के 2 शिवलिंग एवं जगत जननी माँ ज्वालादेवी की इस अंचल में काफी ख्याति है है तरीघाट यहाँ बसाहट के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रागैतिहासिक काल से लेकर मौर्य काल, शुंग काल, कुषाण काल एवं गुप्त काल तक के अवशेष प्राप्त हो रहे हैं। इससे यह तो तय है कि छत्तीसगढ़ में मल्हार के बाद पहली बार कहीं इतनी पुरानी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हो रहे हैं। नी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हो रहे हैं। इसी के समीप से खारुन नदी के अंदर से एक शिवलिंग 5 फीट का है जोमध्य धार में रेत के नीचे दबा हुआ मिला था। और दूसरा समीपस्थ बावड़ी में प्राप्त शिवलिंग साढ़े तीन फीटऊँचा है। दोनों शिवलिंगों के ऊपर का तिहाई भाग गोलाकार है और नीचे का भाग चौकोर है।लाल बलुआ पत्थर से निर्मित है।


 इन्हें बैलगाड़ी से अनेको बार अन्यत्र मंदिर स्थापित कर ले जाने की कोशिस हुई। लेकिन बार बार बैलगाड़ी के चक्को के टूट जाने से कुंड के नज़दीक ही स्थापित कर दिया। इसी मूर्ति में किसी प्राचीन भाषा में. कुछ उत्कीर्ण है। नवरात्री के समय मंदिर के पास बावड़ी कुंड में देवी के जँवारों की पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात जँवारों को खारून नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। शायद ये पहला गाव है ,जहा की माँ ज्वाला देवी ,माँ गौरी कमाक्छ्या देवी के नाम से मुर्तिया मंदिर में स्थापित है। तथा यहाँ पर रहने वालो में इनके प्रति अत्यंत श्रद्धा है।यहा की ज्वालादेवी माता जी की मूल मूर्ती मिट्टी से बनी हुई है ,और वो भी ग्राम सोनपुर के ही एक कुम्भकार परिवार के द्वारा ही निर्मित है। इस गाव की और कई विशेषताए है, पवित्र खारून नदी इस गाव की जीवनदायिनी है। वैसे देखा जाये तो ग्राम सोनपुर और लामकेनि गाव के बीच यहाँ खारून नदी का पाट काफी चौड़ा लगभग एक किमी चौड़ा है


नीचे दोनों ही मूर्तियों के फोटो लगाए गए है :-

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Lalit Sharma बढिया जानकारी, वैसे जिस दिन तरीघाट के उत्तखनन के लिए पहली कुदाल चली, मैं वहीं था और उससे 6 बरस पहले रावण भाठा का निरीक्षण कर चुका था।
Seshubabu Nelluru · Friends with DK Sharma
Please use english sir