प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी राज में रायपुर से बस्तर होते उड़ीसा तक थी " वन ट्राम सेवा " " जंगल की रेल "
क्या आप जानते है की प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी राज में यह अप्रैल 1917 का वक्त था। प्रथम विश्व युद्ध में सारी दुनिया त्राहिमाम कर रही थी ।एक तरफ मित्र देशों की सेना जनरल फाश के नेतृत्व में जर्मनी का मुकाबला कर रही थी तो उधर हिंदुस्तान में अंग्रेजों द्वारा तेजी से मशीनीकरण किया जा रहा था। ठीक इसी वक्त छत्तीसगढ़ के बस्तर में देश की पहली फॉरेस्ट ट्राम की आधारशिला रखी गई ।
श्रीआवेश तिवारी, नई दिल्ली के नईदुनिया , 11 Jul 2014 में प्रकाशित लेख के अनुसार उत्तरी बस्तर से पड़ोसी प्रांत ओडिशा के लिखमा तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को लोग "जंगल की रेल" कहते थे। ट्राम सेवा से हालांकि, लकड़ी और वनोपज की ढुलाई होती थी, पर एक डिब्बा यात्रियों के लिए भी होता था।
मजेदार यह है कि इस ट्राम सर्विस को चलाने वाली कंपनी "गिलेंडर अर्बोथोट" ने ही हिमालयन दार्जीलिंग रेलवे का काम शुरू किया था, जिसका मुख्यालय उस वक्त कलकत्ता था। आज यह कंपनी देश में टेक्सटाइल उद्योग से जुड़ी हुई है। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई ट्राम सेवा का पहला स्टेशन मेघा था। वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सकरा, नगरी, फरसिया, एलाव्ली, लिखमा तक चलती थी ।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों को जब इराक से तेल की जरूरत पड़ी तो उन्होंने इस मार्ग की पटरियों, लोको और अन्य सामान को इराक की राजधानी बगदाद भेज दिया था। लगभग 100 साल पुराने इस रेल मार्ग को दोबारा शुरू करने की मांग उठते रहती है। करीब 100 साल पुराना यह रेल मार्ग धमतरी,रेल लाइन पर कुरूद के निकट चरमुड़िया नामक स्थान से बस्तर की ओर मेघा सिंगपुर से मुड़ता था। पहला स्टेशन मेघा था, वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सांकरा, नगरी, लिकमा तक जाती थी।
उस समय दुगली में एक आरा मशीन लगाई गई थी। तब ट्राम भाप से चलती थी, इसी आरा मशीन से लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे। देश में अन्य रेल मार्ग को स्थापित करने के लिए बस्तर से ही स्लीपर भेजे जाते थे। इस ट्राम लाइन के रास्ते में कहीं भी बड़े पुल नहीं थे। मैंने स्वयं देखा था की छोटे पुलो के उपर साल के लट्ठो से निर्मित था। जिसके अवशेष काफी दिनों तक दीखते थे।
दिलचस्प यह है कि ट्राम सेवा पूरी तरह से वन विभाग का हिस्सा थी ।
रेल मार्ग सीतानदी, उदंती अभ्यारण्य के बीचों-बीच से गुजरता था। ट्राम सेवा चूंकि भाप से चलती थी, इसलिए रास्ते में 5-10 किलोमीटर में कुआं भी बनाए गए थे। रास्ते में ही इंजन में पानी भरकर भाप बनाया जाता था। आज भी जंगल में कुआं और जर्जर स्टेशन के अवशेष मौजूद हैं।
1929-30 के दौरान इस ट्राम सेवा में 29,865 यात्रियों ने सफर किया था, जिनसे किराये के रूप में 18 हजार रुपये वसूले गए थे। 1941 के आते-आते ट्राम चलाने वाली कंपनी घाटे में चली गई और 19 नवंबर 1941 को यह ट्राम सेवा बंद कर दी गई। वैसे बस्तर में इस ट्राम सेवा का संचालन ब्रिटिश कंपनी किया करती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तब ट्राम सेवा में लगी पटरियां, लोको और अन्य सामान उखाड़कर इराक की राजधानी बगदाद भेज दी गई।अभी हालत यह है कि बस्तर के सात में से पांच जिले रेल सुविधा से वंचित हैं।
उस समय जब बस्तर सहित अन्य लोगो ने ने ट्राम सेवा बंद नहीं करने की अपील की तो अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से ट्राम सेवा के कर्मचारियों को नोटिस भेजकर बताया गया कि युद्ध सेवाओं के लिए पटरियां उखाड़ी जा रही हैं।
श्रीआवेश तिवारी, नई दिल्ली के नईदुनिया , 11 Jul 2014 में प्रकाशित लेख के अनुसार उत्तरी बस्तर से पड़ोसी प्रांत ओडिशा के लिखमा तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को लोग "जंगल की रेल" कहते थे। ट्राम सेवा से हालांकि, लकड़ी और वनोपज की ढुलाई होती थी, पर एक डिब्बा यात्रियों के लिए भी होता था।
मजेदार यह है कि इस ट्राम सर्विस को चलाने वाली कंपनी "गिलेंडर अर्बोथोट" ने ही हिमालयन दार्जीलिंग रेलवे का काम शुरू किया था, जिसका मुख्यालय उस वक्त कलकत्ता था। आज यह कंपनी देश में टेक्सटाइल उद्योग से जुड़ी हुई है। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई ट्राम सेवा का पहला स्टेशन मेघा था। वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सकरा, नगरी, फरसिया, एलाव्ली, लिखमा तक चलती थी ।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों को जब इराक से तेल की जरूरत पड़ी तो उन्होंने इस मार्ग की पटरियों, लोको और अन्य सामान को इराक की राजधानी बगदाद भेज दिया था। लगभग 100 साल पुराने इस रेल मार्ग को दोबारा शुरू करने की मांग उठते रहती है। करीब 100 साल पुराना यह रेल मार्ग धमतरी,रेल लाइन पर कुरूद के निकट चरमुड़िया नामक स्थान से बस्तर की ओर मेघा सिंगपुर से मुड़ता था। पहला स्टेशन मेघा था, वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, सांकरा, नगरी, लिकमा तक जाती थी।
उस समय दुगली में एक आरा मशीन लगाई गई थी। तब ट्राम भाप से चलती थी, इसी आरा मशीन से लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे। देश में अन्य रेल मार्ग को स्थापित करने के लिए बस्तर से ही स्लीपर भेजे जाते थे। इस ट्राम लाइन के रास्ते में कहीं भी बड़े पुल नहीं थे। मैंने स्वयं देखा था की छोटे पुलो के उपर साल के लट्ठो से निर्मित था। जिसके अवशेष काफी दिनों तक दीखते थे।
दिलचस्प यह है कि ट्राम सेवा पूरी तरह से वन विभाग का हिस्सा थी ।
रेल मार्ग सीतानदी, उदंती अभ्यारण्य के बीचों-बीच से गुजरता था। ट्राम सेवा चूंकि भाप से चलती थी, इसलिए रास्ते में 5-10 किलोमीटर में कुआं भी बनाए गए थे। रास्ते में ही इंजन में पानी भरकर भाप बनाया जाता था। आज भी जंगल में कुआं और जर्जर स्टेशन के अवशेष मौजूद हैं।
1929-30 के दौरान इस ट्राम सेवा में 29,865 यात्रियों ने सफर किया था, जिनसे किराये के रूप में 18 हजार रुपये वसूले गए थे। 1941 के आते-आते ट्राम चलाने वाली कंपनी घाटे में चली गई और 19 नवंबर 1941 को यह ट्राम सेवा बंद कर दी गई। वैसे बस्तर में इस ट्राम सेवा का संचालन ब्रिटिश कंपनी किया करती थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तब ट्राम सेवा में लगी पटरियां, लोको और अन्य सामान उखाड़कर इराक की राजधानी बगदाद भेज दी गई।अभी हालत यह है कि बस्तर के सात में से पांच जिले रेल सुविधा से वंचित हैं।
उस समय जब बस्तर सहित अन्य लोगो ने ने ट्राम सेवा बंद नहीं करने की अपील की तो अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से ट्राम सेवा के कर्मचारियों को नोटिस भेजकर बताया गया कि युद्ध सेवाओं के लिए पटरियां उखाड़ी जा रही हैं।
सूत्र बताते हैं कि उस समय तक स्थापित राजिम छोटी लाइन की रेल सेवा की लाइन भी उखाड़ने की बात चली थी पर राजिम पुन्नी मेला और धार्मिक महत्व को देखते हुए बाद में इस सेवा को बहाल रखा गया।नईदुनिया के पास मौजूद उस वक्त के दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजों ने ट्राम सेवा के घाटे का पूरा जिम्मा स्थानीय आदिवासियों के मत्थे पर डाल दिया ।अंग्रेज सरकार के दस्तावेज बताते हैं कि 1929-30 के दौरान ट्राम सेवा से 29685 यात्रियों ने यात्रा की थी, जिनसे किराए के तौर पर लगभग 18 हजार रूपए वसूले गए थे ।
अंग्रेजों का मानना था कि यात्रियों की वजह से जयपुर के राजा को सप्लाई की जाने वाली लकड़ियों का कोटा कम पड़ गया, जिससे उन्हें बेहद नुकसान हुआ । यह भी पता चलता है कि जयपुर घराना इस रेलवे लाइन के और ज्यादा विस्तार में दिलचस्पी ले रहा था। हालांकि इसका विस्तार नहीं हो पाया ।
1941 आते आते कंपनी भारी घाटे में चली गई और फिर 19 नवंबर 1941 को इस ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह से बंद कर दिया गया। सभी स्टेशनों पर नोटिस बोर्ड चिपका दिया गया कि जो यात्री जिस और भी जायेंगे उन्हें वापसी का टिकट नहीं मिलेगा।
उसके बाद दो मार्च 1942 को ट्रामवे के कर्मचारियों को अंग्रेज सरकार की ओर से एक और नोटिस भेजी गई, जिसमें कहा गया कि युद्ध सेवाओं के लिए ट्राम सर्विस को उखाड़ा जा रहा है। आप लोगों को आपका बकाया दे दिया जाएगा ।
कर्मचारियों और बस्तर के आम आदिवासियों ने अंग्रेजी सल्तनत से इस सेवा को बंद न करने की अपील की यहां तक कि महारानी एलिजाबेथ से भी अपील की गई मगर यह सेवा दोबारा शुरू नहीं हो पाई। उस वक्त लिखमा में एक मुसलमान स्टेशन मास्टर हुआ करते थे, जिन्होंने एक अंग्रेज महिला से शादी की थी। वो भी ट्राम सेवा बंद होने के बाद इंग्लेंड चले गए ।
श्रीआवेश तिवारी, नई दिल्ली के नईदुनिया में प्रकाशित लेख के अनुसार
रायपुर फारेस्ट ट्रामवे के सूत्रों को जानने के क्रम में उनकी मुलाकात उक्त ट्राम सर्विस में गार्ड का काम करने वाले के पुत्र धनंजय शुक्ल से हुई। धनंजय अपने पिता के नियुक्ति पत्र उनको दिखाते हैं तो पता चलता है कि उनके पिताजी को उस वक्त 25 रूपए प्रतिमाह तनख्वाह मिला करती थी। फिलहाल छत्तीसगढ़ के रायपुर में ही रह रहे धनंजय कहते हैं आज सरकार चाहे तो इस ट्रामवे की लाइन का फिर से इस्तेमाल कर सकती है ।
अंग्रेजों का मानना था कि यात्रियों की वजह से जयपुर के राजा को सप्लाई की जाने वाली लकड़ियों का कोटा कम पड़ गया, जिससे उन्हें बेहद नुकसान हुआ । यह भी पता चलता है कि जयपुर घराना इस रेलवे लाइन के और ज्यादा विस्तार में दिलचस्पी ले रहा था। हालांकि इसका विस्तार नहीं हो पाया ।
1941 आते आते कंपनी भारी घाटे में चली गई और फिर 19 नवंबर 1941 को इस ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह से बंद कर दिया गया। सभी स्टेशनों पर नोटिस बोर्ड चिपका दिया गया कि जो यात्री जिस और भी जायेंगे उन्हें वापसी का टिकट नहीं मिलेगा।
उसके बाद दो मार्च 1942 को ट्रामवे के कर्मचारियों को अंग्रेज सरकार की ओर से एक और नोटिस भेजी गई, जिसमें कहा गया कि युद्ध सेवाओं के लिए ट्राम सर्विस को उखाड़ा जा रहा है। आप लोगों को आपका बकाया दे दिया जाएगा ।
कर्मचारियों और बस्तर के आम आदिवासियों ने अंग्रेजी सल्तनत से इस सेवा को बंद न करने की अपील की यहां तक कि महारानी एलिजाबेथ से भी अपील की गई मगर यह सेवा दोबारा शुरू नहीं हो पाई। उस वक्त लिखमा में एक मुसलमान स्टेशन मास्टर हुआ करते थे, जिन्होंने एक अंग्रेज महिला से शादी की थी। वो भी ट्राम सेवा बंद होने के बाद इंग्लेंड चले गए ।
श्रीआवेश तिवारी, नई दिल्ली के नईदुनिया में प्रकाशित लेख के अनुसार
रायपुर फारेस्ट ट्रामवे के सूत्रों को जानने के क्रम में उनकी मुलाकात उक्त ट्राम सर्विस में गार्ड का काम करने वाले के पुत्र धनंजय शुक्ल से हुई। धनंजय अपने पिता के नियुक्ति पत्र उनको दिखाते हैं तो पता चलता है कि उनके पिताजी को उस वक्त 25 रूपए प्रतिमाह तनख्वाह मिला करती थी। फिलहाल छत्तीसगढ़ के रायपुर में ही रह रहे धनंजय कहते हैं आज सरकार चाहे तो इस ट्रामवे की लाइन का फिर से इस्तेमाल कर सकती है ।
1966 में किरंदुल से कोत्तावल्सा तक 525 किलोमीटर लंबी रेल मार्ग का निर्माण जापान सरकार ने कराया। इसमें भारत सरकार ने एक भी पैसा खर्च नहीं किया। लौह अयस्क का भंडार बैलाडीला (बस्तर) में होने के कारण ही रेल लाइन का निर्माण हुआ, वहां लौह अयस्क का भंडार नहीं होता तो रेल मार्ग ही नहीं बनता।
इस मार्ग पर एक यात्री रेलगाड़ी ही चलती है। कभी भी इस यात्री रेलगाड़ी को रद्द कर दिया जाता है। ज्ञात रहे कि दुर्ग से जगदलपुर तक साप्ताहिक यात्री रेल भी शुरू की गई है। 300 किमी दूरी तय करने में सड़क मार्ग से सात घंटे लगते हैं, लेकिन यह रेलगाड़ी 16 घंटों में दुर्ग से जगदलपुर पहुंचती है, क्योंकि यह रायपुर, महासमुंद, खरियार रोड, टिटलागढ़, कोरापुट, रायगढा आदि से गुजरती है।
इस मार्ग पर एक यात्री रेलगाड़ी ही चलती है। कभी भी इस यात्री रेलगाड़ी को रद्द कर दिया जाता है। ज्ञात रहे कि दुर्ग से जगदलपुर तक साप्ताहिक यात्री रेल भी शुरू की गई है। 300 किमी दूरी तय करने में सड़क मार्ग से सात घंटे लगते हैं, लेकिन यह रेलगाड़ी 16 घंटों में दुर्ग से जगदलपुर पहुंचती है, क्योंकि यह रायपुर, महासमुंद, खरियार रोड, टिटलागढ़, कोरापुट, रायगढा आदि से गुजरती है।
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