जान लेवा खूनी मेला:, पत्थर मारने की 300 साल पुरानी परंपरा ,क्या आप मेला में भाग लेकर देखना चाहेंगे ?
मित्रो क्या आप किसी ऐसी जगह की मेला में भाग लेकर देखना चाहेंगे , जहां पर की पुरे दिन सिर्फ एक दूसरे पर पत्थर मारकर एक दूसरे की खून बहाया जाता है। आइये आपको इस जगह के बारे में बताता हु।
दोस्तों मुझे अविभाजित मध्यप्रदेश के बैतुल जिले में भी रहने का मौका मिला है। तभी पोला का त्यौहार नज़दीक था । बैतूल जिले में भी पोला (बैलों का त्यौहार ) का त्यौहार पुरे माह में अलग अलग गाँव में धूमधाम से मनाया जाता है। वहाँ पर भोपाल और नागपुर (महाराष्ट्र ) दोनों का मिला जुला कल्चर है । इस मौके में पीने -पिलाने का दौर ,बैल दौड़ , जुआ आदि भी होना ख़ास जरूरी है ।
मेरे साथ के सहकर्मीयो ने इस बार इच्छा जाहिर की कि सर इस बार पांढुर्ना गोटमार मेला देखने चलते है । मेरे लिए गोटमार शब्द नया था। इसलिए मैंने पूछा की ,,,ये क्या होता है ?
उन्होंने बताया ,,,की सर आप तो जानते है , यहाँ पर मराठी भाषा बोलने वाले नागरिकों की इस क्षेत्र में बहुलता है । और मराठी भाषा में गोटमार का अर्थ पत्थर से मारना होता है। और महाराष्ट्र की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्ना में हर वर्ष पोला के अगले दिन गोटमार मेला लगता है । ये जगह नागपुर और बेतुल के बीच रेलवे लाइन में है।
वहाँ शब्द के अनुरूप मेले के दौरान पांढुरना और सावरगांव के बीच बहने वाली नदी के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मार मारकर एक-दूसरे का लहू बहाते हैं।
मैंने कहा- ऐसे क्यों , ये तो गलत बात हुई है न ? लोग तो घायल भी हो जाते होंगे ?
हां सर इस पथराव में कुछ लोगों की गत वर्षो में मृत्यु के मामले भी हुए हैं।उनकी पूरी बात सुनने से समझ में आयी की ,
वास्तविकता में दो कसबे के बीच एक नदी बहती है।नदी के उस पार सावरगांव व इस पार को पांढुरना कहा जाता है।
यहां पोला धूमधाम से मनाया जाता है। और इसी दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है। उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है।
हां सर इस पथराव में कुछ लोगों की गत वर्षो में मृत्यु के मामले भी हुए हैं।उनकी पूरी बात सुनने से समझ में आयी की ,
वास्तविकता में दो कसबे के बीच एक नदी बहती है।नदी के उस पार सावरगांव व इस पार को पांढुरना कहा जाता है।
यहां पोला धूमधाम से मनाया जाता है। और इसी दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है। उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है।
दूसरे दिन सुबह होते ही लोग उस वृक्ष की एवं झंडे की पूजा करते है । और फिर प्रात: 8 बजे से शुरु हो जाता है ढोल ढमाकों के बीच भगाओ-भगाओ के नारों के साथएक दूसरे को पत्थर मारने का खेल।कभी पांढुरना के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी। और यह क्रम लगातार चलता रहता है। दर्शकों का मजा और उन्माद दोपहर बाद 3 से 4 के बीच बढ़ जाता है।
जबकि पाढुर्णा वालों खिलाड़ी चमचमाती तेज धार वाली कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए उसके पास पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये लोग जैसे ही झडे के पास पहुंचते हैं साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की भारी मात्रा में वर्षा कर इनको पीछे हटा देते हैं।शाम को पांढुरना पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ जय चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं । जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके गले मिलकर मेल-मिलाप करते है।
और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है। झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है। पत्थरबाजी की इस परंपरा के दौरान जो लोग घायल होते है, उनका शिविरों मे( मेला स्थल )उपचार किया जाता है और गंभीर आहत हुए मरीजों को नागपुर भेजा जाता है।
इस मेले के आयोजन के संबंध में कई प्रकार की किवंदतियां हैं। इनमें सबसे प्रचलित और आम किवंदती यह है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुरना के किसी लड़के से प्रेम हो गया था। दोनों ने चोरी छिपे प्रेम विवाह कर लिया। पांढुरना का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था।
उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था और जब लड़का लड़की को लेकर नदी से उस पार ले जा रहा था ।
उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था और जब लड़का लड़की को लेकर नदी से उस पार ले जा रहा था ।
तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू किया। जानकारी मिलने पर पहुंचे पांढुरना पक्ष के लोगों ने भी जवाब में पथराव शुरू कर दी। इस पत्थरों की बौछारों से इन दोनों प्रेमियों की मृत्यु जाम नदी के बीच ही हो गई।दोनों प्रेमियों की मृत्यु के पश्चात दोनों पक्षों के लोगों को गलती पर शर्मिंदगी का एहसास हुआ।
और दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर किले पर माँ चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संभवतः इसी घटना की याद में माँ चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है।
आस्था से जुड़ा होने के कारण इसे रोक पाने में असमर्थ प्रशासन व पुलिस एक दूसरे का खून बहाते लोगों को असहाय देखते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते।निर्धारित समय अवधि में पत्थरबाजी समाप्त कराने के लिए प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों को बल प्रयोग भी करना पड़ता है।
कई बार प्रशासन ने पत्थरों की जगह तीस हजार रबर की छोटे साइज की गेंद उपलब्ध कराई थी, परंतु दोनों गांवों के लोगों ने गेंद का उपयोग नहीं करते हुए पत्थरों का उपयोग ही किया था। थकहार कर प्रशासन ने दोनों गांवों के लोगों को नदी के दोनों किनारों पर पत्थर उपलब्ध कराना शुरू किया था।
लेकिन वर्ष 2009 में समाचार पत्र में पढ़ा था की मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के बाद छिंदवाड़ा जिला प्रशासन ने पांढुरना एवं सावरगांव के बीच होने वाले गोटमार मेले में पत्थर फेंकने पर रोक लगाते हुए मेला क्षेत्र में छह दिनों के लिए धारा 144 लागू कर दी।
इस गोटमार मेले में समय के साथ कई बुराइयां भी शामिल हो गई हैं। गोटमार के दिन ग्रामीण मदिरा पान करते हैं तथा प्रतिबंधों के बावजूद गोफन के माध्यम से तीव्र गति और अधिक दूरी तक पत्थर फेंकते हैं । जिससे दर्शकों के घायल होने का खतरा बढ़ जाता है।
लेकिन वर्ष 2009 में समाचार पत्र में पढ़ा था की मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के बाद छिंदवाड़ा जिला प्रशासन ने पांढुरना एवं सावरगांव के बीच होने वाले गोटमार मेले में पत्थर फेंकने पर रोक लगाते हुए मेला क्षेत्र में छह दिनों के लिए धारा 144 लागू कर दी।
इस गोटमार मेले में समय के साथ कई बुराइयां भी शामिल हो गई हैं। गोटमार के दिन ग्रामीण मदिरा पान करते हैं तथा प्रतिबंधों के बावजूद गोफन के माध्यम से तीव्र गति और अधिक दूरी तक पत्थर फेंकते हैं । जिससे दर्शकों के घायल होने का खतरा बढ़ जाता है।
तथा गोफन से पत्थर फेंकने वालों की वीडियोग्राफी भी कराई जाती है। प्रतिबंध के बावजूद भी पत्थर फेंकने वाले खिलाड़ी एवं अन्य कई लोग शराब के नशे में घूमते दिखाई पड़ते हैं।
भले ही युग बदल गया हो, मगर परंपराएं अब भी बरकरार हैं। उनकी बातों को सुनकर मुझे इस खून खराबे वाली जगह में जाने की इच्छा नही हुई। कौन जाकर अपनी सर फुड़वाये।
मेरे जो सहकर्मी गए भी थे जब वे लौटे तो तो एक के सिर पर तो एक के ऊँगली में पट्टी बंधी हुई थी। और जिसे वे माता जी के आर्शीर्वाद बता कर बड़े खुश थे।
भले ही युग बदल गया हो, मगर परंपराएं अब भी बरकरार हैं। उनकी बातों को सुनकर मुझे इस खून खराबे वाली जगह में जाने की इच्छा नही हुई। कौन जाकर अपनी सर फुड़वाये।
मेरे जो सहकर्मी गए भी थे जब वे लौटे तो तो एक के सिर पर तो एक के ऊँगली में पट्टी बंधी हुई थी। और जिसे वे माता जी के आर्शीर्वाद बता कर बड़े खुश थे।