सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

 स्मृति स्तंभ बस्तर की जनजातियों पूर्वजो कीयाद मे       दंतेवाड़ा  गामवाड़ा ग्राम

पूर्वजो की याद में जीवन के अनेको रंगों में इतिहास को  दर्शाता हुआ  दो हज़ार साल पुराने  स्मृति स्तंभ स्मृति चिन्ह ) और बनाये जाने के कारण को  समझना है  तो आइये  पधारिये  बस्तर  में 



यदि आपकी दिलचस्पी आदिवासी जीवन को नज़दीक से समझने और जानने की हो तो इसके लिए बस्तर भी एक अच्छी जगह है। जहा पर जीवन के अनेको रंग आपके सामने आएंगे जो की बाकी दुनिया से अनूठीऔर अलग है।जन जातीय के जीवन जीने की अनोखी तरीकों का प्रतीक है। उनमें मृतक स्मृति चिन्ह खंभे, पूरे क्षेत्र में फैला हुआ है, जो बाहर की दुनिया से आने वालो किसी भी का ध्यान इस प्राचीन संस्कृति आकर्षक सीमेंट, पत्थर या लकड़ी के खंभे में किए गए नक्काशी ,पेंटिंग ,खुदाई की और आकृष्ट हो सकता है। जो की मृतक व्यक्ति के शौक उसके सपने, और जीवन शैली का स्मरण करते हुए मृत्यु के कारण के विवरण को भी दर्शाती है।यह बड़े पत्थरों के द्वारा बना स्मृति चिन्ह की संस्कृति मुख्य रूप से मुरिया जनजाति के द्वारा अपनाया गया है,





 बस्तर की मारिया और गोंड जनजातियों का इतिहास भी 3000 साल पुराना माना जा रहा है और यह शुरू हुआ मानव के विकास के दौरान कृषि कार्य की और बढ़ते चरण के शुरू से । इसके अवशेष तमिलनाडु, महाराष्ट्र, असम और यहां तक कि कश्मीर जैसे अन्य राज्यों में पाए गए। कई प्राचीन लकड़ी और पत्थर के खम्भों संरक्षण के लिए कहते हैं, वहीं एएसआई ऐसे ही एक Dilmili और Gamawada पर स्थित साइट संरक्षित किया गया है




दंतेवाड़ा जिला मुख्यालय से बचेली के मार्ग पर १२ km की दुरी पर गामवाड़ा ग्राम में सैकड़ो की संख्या में ऊँचे लंबे प्रस्तर स्तम्भ माड़िया जनजाति के लोग अपने पुरखो की याद में स्थापित किये हुए है। 2000 साल पुराने इन स्तंभो के प्रति ग्रामीण जनो में अपार श्रद्धा और सम्मान है। ईसा पूर्व की ये संरचनाए आज भी यहाँ अपने पूर्वजो की याद दिलाती है। जो उन्हें छोड़ कर प्रकृति में लीन हो गए है। यह पर नवाखानी के अवसर पर उनके सम्मान और आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध आयोजित कर  इस विधान में मृतको की याद में नए अन्न और उपज स्मारक पर अर्पित किया जाता है। आयोजन से पूर्व स्तम्भ से सम्बंधित पूरा परिवार मिलकर स्तम्भ के आसपास की पूरी सफाई करता है।
माड़िया समुदाय के लोग जरूरतों और परिस्थितयों के चलते अलग अलग जगहों पर निवास करने लगे है ,और उसी छेत्र में उनकी मृत्यु हो जाती है। परंतु मरणोपरांत मृतक की याद में स्तम्भ का निर्माण इसी कब्रगाह में किया जाता है। सैकड़ो की संख्या में स्थित ये स्तम्भ परिवार की मुखियाओ की याद में बनाये जाते है।
चुन कर चयन किये जाते है प्रस्तर
बस्तर की माडिया जनजाति की उपजातियो के अलग अलग गोत्रज के अलग अलग कब्रगाह होते है। जिसको बनवासी अपने पूर्वजो के याद में पहाड़ो और दुरूह इलाको से खोजकर लाये गये विशेष आकृति और विशेष आकार के प्रस्तरों को स्थापित करते है। विशाल आकार के इन पत्थरो को यहाँ स्थापित करना बड़े ही मशक्कत का काम है। जमीन के ऊपर जिस उचाई तक स्तम्भ दिखाई देते है अंदर भी उतना ही इन्हें गाड़ा जाता है।
मृतक के मृत्यु के कारण ,पसंद ,उसका ड्रीम भी बताता है
मृतक की याद में  बना स्तम्भ अनुभवी पुरातत्वविद् सीएल रैकवार, जिन्होंने बस्तर के स्मारक स्तंभों के  एक विशेषज्ञ  है ,के अनुसार मुग़ल शासक राजा अकबर और उसका परिवार  अपने स्वामित्व में  मृतको की याद  में बड़े खूबसूरत  भवन  पत्थरो से बना रखे है ,जहा  पर उन्हें दफनाया गया है।आदिवासियों का मुख्य जुड़ाव जंगल से रहा है इसलिए पहले वे लकड़ी उपयोग कर इसे बनाते थे। " इन स्तंभों को  दफन मृतक के सिर के साइड पर रखा जाता है। "
दिलचस्प नमूने स्तंभो में
हम  कुछ  स्तंभो में बाइक, कार, हवाई जहाज, घोड़े, पशु, बंदूकें, या पृथ्वी पर कुछ भी के चित्रों के साथ कंक्रीट खम्भों पर दिलचस्प नमूने पाते हैं जो न केवल उनके  शौक या पसंद दर्शाती  है, लेकिन ये  भी  बताता है वो कैसे मर गया, शराब या मलेरिया  से , शराब की बोतल , मच्छर की तस्वीर बना मरने  का    कारण भी  इन स्तंभों पर दर्शाया जाता  है।
सुकमा जिले के धुर नक्सल इलाके कोमाकोलेंग का  एक अद्भुत ऐतिहासिक स्तम्भ 
 इसी तरह सुकमा जिले के धुर नक्सल इलाके कोमाकोलेंग में में भी एक अद्भुत ऐतिहासिक स्तम्भ है । एकबारगी दूर से देखने पर यह स्तम्भ बस्तर में सामान्यतः बनाये जाने वाले मृतक स्तम्भो की भांति प्रतीत होता है ; किन्तु कही न कहीं उसके अनगढ़ चित्र  ऐतिहासिकता  के किसी भाग  को   प्रमाणित करती  है । दरअसल इस काष्ठ स्तम्भ पर फरवरी १९१० की तिथि अंकित थी जो स्पष्टतः बस्तर में हुए महान भूमकाल की ओर इशारा कर रही थी,आसपास के गांव वालो को रोककर जब हमने कुछ पूछने की कोशिश की तो वो डर कर भाग निकले अंततः एक बुजुर्ग ने अपनी भाषा में समझाते हुए उसे देवधामी बताया उसके अनुसार यहाँ पर बस्तर के देवता जो की आदिवासियों के राजा भी थे; ने कुछ राक्षसो को मार गिराया था उसी की स्मृति में यह काष्ठ स्तम्भ १०५ वर्ष पूर्व इस जगह पर लगाया गया था.
चित्र में बने हुए आदिवासी उसके ही पूर्वज है चेहरे से मिलान भी  
उस बुजुर्ग ने काष्ठ स्तम्भ में बने चित्रो को दिखाते हुए अपने चेहरे से मिलान भी करवाया और यह भी बतलाया की चित्र में बने हुए आदिवासी उसके ही पूर्वज है।



पुरुषों का है प्रतीक चिन्ह
लगभग 20000 squqre feet में फैले इस कब्रगाह मे सिर्फ पुरुषो के ही मृतक स्तम्भ बनाये जाते है। महिलाओ के मृतक स्तम्भ यहाँ स्थापित नही किये जाते। परिवार की मुखिया की याद में इन्हें बड़े ही विधि विधान से बड़े आयोजन कर स्थापित किया जाता है। महिलाये उनकी याद में उनके प्रति सम्मान प्रगट करने के लिए कब्र गाह में प्रवेश कर सकती है।
संरक्षण पुरातात्विक स्थल की
2000 वर्ष पुराने इन मृतक स्तंभो को प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल व अवशेष अधिनियम १९५८ के अन्तर्गत राष्ट्रीय महत्व का धरोहर घोषित किया किया गया है। तथा कब्रगाह के चारोओर को दीवारों से घेरकर सरंक्षण   किया गया है
स्मृति स्तंभ में  परिवार के किसी मृतक  सदस्य को याद  करना  त्योहार की तरह  है
संस्कृति विभाग  जगदलपुर  के अनुसार , "यह आदिवासियों का  स्मृति स्तंभ मृतक परिवार के किसी सदस्य को याद  करने के लिए एक त्योहार की तरह  है। परिवार गरीब है, आत्मा को आखिरी विदाई के भुगतान के लिए और कबीले के  लोगो को  आमंत्रित करने से पहले सभी संसाधनों और पैसे इकट्ठा करता रहता है। यदयपि  ऐसा  करने के लिए थोड़ा समय लगता है  । " अमीर लोगों में  30000 50 000 रुपये  लागत से  और महंगा खंभे बनाकर दिखाने के लिए  बैंड बाजा  के साथ एक जुलूस निकाल कर  घूमाते  हुए  तय  जगह में गड़ाते  है  । "
शहीद  स्तंभ
दिलचस्प बात यह है कि माओवादियों को भी विद्रोहियों वे मुठभेड़ों में खो दिया है और  वे उन्हें शहीद  कहते हैं। बस्तर  के अंदरूनी हिस्सों में इन स्तंभों  को बनाया गया है ऐसे  स्मृति स्तंभों पर भारत की  प्रतीकात्मक कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का चिन्ह  हंसिया और हथौड़ा के साथ लाल रंग में बनाया गया  हैं।
 बीजापुर जिले तक जगदलपुर, Tokapar, Bastanar, दंतेवाड़ा, Gamawada, Kodenar, Katekalyan से सड़क के दोनों किनारों पर  ध्यान देने योग्य  खड़े है। उनमें से ज्यादातर इन दिनों सीमेंट और पत्थर में बना रहे हैं, क्योंकि  आदिवासियों ने जान  बूझकर लकड़ी के खंभे के लिए पेड़ नहीं  काटने के लिए
 फैसला किया है।
संरक्षित स्मारक
Dilmili पर Gamawada पर और लकड़ी के खंभे पत्थर संरक्षित स्मारकों घोषित किया गया है के तहत प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल अवशेष अधिनियम, 1958, पुरातत्वविदों कहा कि यह एक प्राचीन विश्वास है ने कहा कि जब एक आदिवासी अपने ही वांछित अंतरिक्ष,  में एक जीवन होता है वह मौत के बाद भी कुछ जगह दी और आत्मा के रहने वाले के रूप में उस जगह पर रहता है।

( Memory Pillars of Gamawada )
The large-sized pillars made of stone invite the visitors to have a glance at the age old trs.adition and culture of the local tribes. These pillars which were erected centuries back by the local inhabitants are basically the memory pillars staunched to their deceased relative

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