बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

 " खप्पर " (Khappar) कवर्धा  देवी के मंदिर से  दाएं हाथ में चमचमाती  तलवार व बाये हाथ में अग्नि से  धधकता  खप्पर लेकर लाल रंग के वस्त्र  में  अष्ट्मी  नवरात्री की  रात्रि पहर  को  निकलता है रौद्ररूप में नगर भ्रमण में   ? 



                        क्या आपने भी  ऐसा और देखा है  कही पर  ?

   (छत्तीसगढ़  कबीरधाम जिले की  अष्टमी   नवरात्र  में  विशेष प्रथा )

 मेरी पहली  राजपत्रित अधिकारी के रूप में पोस्टिंग  वर्ष १९८२ में कवर्धा जिले के भीतर बोड़ला ब्लॉक में हुयी थी। तब राजनांदगांव के दूरस्थ  उपेक्छित  वनांचल  छेत्र में उसकी गिनती होती थी। आवागमन के मार्ग नही तथा मलाजखंड बालाघाट के समीप से लेकर पूर्व बिलासपुर जिला के पांडातराई के पास तक और मज़ेदार यह भी की कवर्धा जिला मुख्यालय से 05  कि, मी . से आगे राजनांदगांव रोड  से लेकर  बैगा चक  मंडला  के मंगली तक लगा हुआ एरिया आता था। चिल्फी घाटी ,भोरमदेव मंदिर ,परसाही (पुरातत्व खोज वाली ) आदि    भी  ब्लॉक में ही शामिल  थे।
दशहरे ,नवरात्री में पूरा बैगा  समुदाय के  परिवार राज फॅमिली से भेट - परंपरा के निर्वाह हेतु   पैदल पैदल चलकर कवर्धा तथा बोड़ला में अपना  डेरा पुरे 05  , 07  दिन के लिए झाड़ के नीचे  डाल  देता था।
         मेरा यह बताने का मतलब सिर्फ यह है की वो राजवाड़ा  छेत्र होते हुए भी उस समय कितना पिछड़ा हुआ था.। आवागमन हेतु मार्ग भी नही थे।
बोड़ला काफी छोटी सी जगह थी , सिर्फ मेरे ,थानेदार ,रेंजर  और डॉक्टर्स क्वार्टर  मात्र थे।
 हम लोग भी दशहरा त्यौहार  मानाने ,अथवा सामन आदि की खरीदी हेतु   परिवार सहित कवर्धा ही चले जाया करते थे।
         चैत्र नवरात्रि के अष्टमी  पर जब   कवर्धा  गये  तो  मेरे मित्र श्री एम  .डी दीवान   (रायपुर नगर निगम आयुक्त भी रहे )  व् भाभी जी ने  हमे वहाँ   देवी के मंदिर से  निकलने वाले " खप्पर " जो की आधी रात  में   निकल कर  पुरे शहर का भ्रमण करता है ,को देखने   हेतु   रात  रुक कर    सुबेरे चले जाने की सलाह दी।
हम लोग छत्तीसगढ़ में काफी  जगह नोकरी की वजह से रहे है ,किन्तु यह शब्द हमारे लिए नया था ।  किन्तु  रात  नही रुक कर  वापस  मुख्यालय लौट आये ।













मैंने   अन्यो से   "  खप्पर "  प्रथा  के बारे में जानकारी ली।
         भारत  में  कई जगहों पर  "  खप्पर "  निकालने की परंपरा वर्षों पुरानी है।   और छत्तीसगढ़ में  कवर्धा नगर में आज भी वर्षों पुरानी खप्पर निकालने की परंपरा का निर्वहन धार्मिक आस्था के साथ किया जाता है।

 इत्तेफ़ाक़ देखिये की  कुछ वर्षो बाद मेरी पोस्टिंग कवर्धा विकासखंड में हि हो गई।

 मेरे क्वार्टर  वहां  के एक प्रमुख चौराहे पर था। जिसके सामने   पास ही  महामाया देवी का   मंदिर था।  खैर फिर वह दिन आया  तथा  sdm  ने लॉ एंड आर्डर की मीटिंग ली।  एक सदस्य के रूप में मुझे भी समझ में आयी कि  यह प्रथा धार्मिक मान्यता के अनुसार ग्राम व नगर की पूजा प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति दिलाने व नगर में विराजमान देवी-देवताओं का रीति-रिवाजों के अनुरुप मान-मनौव्वल स्थापित करने के लिए  है।
        प्रतीकात्मक पोशाक गहरे लाल रंग का कपड़ा में  कृत्रिम केश और मुकुट धारण कर बाएं हाथ मेें  धधकता हुआ मिट्टी का खप्पर एवं दाएं हाथ में चमचमाती नंगी तलवार धारण कर  आधी रात   में  2 , 4  लोग निकलेंगे।
पूर्व  वर्षो में उग्र होने के कारण लोगो पर तलवार भी घूमा  दिए थे । अतः पब्लिक जो की उस अवसर पर दूर दूर से हज़ारो की संख्या में आये रहते है किसी भी तरह की भगदड़ की स्थिति निर्मित नही होने पाये  यह हमे ध्यान में रखना है।खैर वह  दिन आया  जबकि खप्पर निकलना था।

         मेरा शासकीय  आवास उसी  रोड में  चौराहे पर था। खा पीकर हम लोग सो गए। आधी रात  के लगभग भनभनाहट  की आवाज़ से नींद खुल गई। परिवार के सभी लोगो को भी जगाया  ,देखा तो पुरे सड़क की दोनों और  हज़ारो की संख्या में महिला और पुरुष तथा बच्चे खप्पर के आने    का इंतज़ार करते   एक तरह के खास अनुशासन के साथ   खड़े हुए थे।

तभी काफी दूर से  एक अजीब सी भय पैदा कर देने वाली किलकारी की आवाज़ आई ,  उउउउउउहुउउउउउऊ ,हूउउउमऊ  जैसे की कोई उन्माद में हो।  सड़क की बिजली बत्ती  गुल थी।  हज़ारो की भीड़ मौजूद  किन्तु लोग बात करने में  डर रहे थे ।
,विचित्र सी भनभनाहट   ,,, अँधेरे वातावरण में  माहौल  बड़ा ही रहस्यमय सा निर्मित हो गया था।
नवरात्रि के अष्टमी तिथि को खप्पर का दर्शन करने शहर और गांवों से आए ग्रामीण रात्रि तक जागते है ।
हमने भी अपने क्वार्टर  से देखा  की  (  लोग भयवश  मेरे  कंपाउंड के अंदर  तक घुस आये थे  ) मिटटी के बड़ा सा बर्तन जिसमे अग्नि प्रज्ज्वलित थी में हवन सामग्री  लोभान ,धुप की खुशबु  दूर दूर तक फ़ैल रही थी। उसके प्रकाश में दूर से अन्धेरे में सफ़ेद चमकती हुई  नंगी तलवार पकडे    वे पास आते गये।
लोग उसके सामने होने से बचने के लिए आजु बाज़ू में पिन ड्राप  साइलेंट के साथ  विचित्र सी भनभनाहट के साथ   चुपचाप    पीछे हटने  लगे।
कुछ  लोग जोकि देवी माँ के  अगुवान और लंगूर  के रूप में थे ,इनके आगे आगे   दाहिने हाथ   में  नंगी तलवार , कुछ झंडा रखे हुए  चारो तरफ घूमाते  हुए खप्पर के लिए भीड़ का  रास्ता साफ  काफी दूर पहले से ही  कर रहे थे  ।
खप्पर  के पीछे ही माता की सेवा में लगे पंडितो   के द्वारा परंपरानुसार मंत्रोच्चारणों के साथ पूजा- अर्चना  करते चल रहे  थे  ।
 लोगो ने बताया कि इससे पूर्व मां परमेश्वरी मंदिर व मां चण्डी मंदिर के प्रमुख खप्पर धारक और भगवान का सकरी नदी में पंडो और स्वयं सेवकों द्वारा स्नान कराया जाकर  और देवी के प्रतीकात्मक पोशाक गहरे लाल रंग का कपड़ा धारण कराया जाने के बाद  कृत्रिम केश और मुकुट धारण कर बाएं हाथ मेें होम सामग्री से धधकता हुआ मिट्टी का खप्पर एवं दाएं हाथ में चमचमाती नंगी तलवार धारण कराया गया है ।
 जबकि रास्ता बनाने वाले अगुवान को सिर्फ तलवार धारण कराया गया है ।
 खप्पर जिला / पुलिस प्रशासन तथा नगर में नगरवासियों को मंदिर समिति के द्वारा आम सूचना दिए जाने के बाद परंपरागत निर्धारित मार्ग से होते हुए खप्पर  शहर के सभी देवी मंदिरो से होता हुआ  पुनः मंदिर प्रांगण पहुंचता है।
 इन मार्गो पर स्थापित देवी तथा देवताओं का विधिवत आह्वान किया जाता है।
जब वे पास आये तो देखा की  रौद्ररूप धारण कर परमेश्वरी मंदिर के खप्पर धारक तेज किलकारी मारते हुए नगर भ्रमण पर निकले अगुवान और खप्पर धारी के साथ द्रुतगति से  स्वयं सेवक तथा पीछे सुरक्षा के दस्ते   चल  रहे थे।
उससे काफी आगे पुलिस की पायलेट टीम चल रही थी। जिस रास्ते से खप्पर गुजरता गया। उससे पहले भीड़ को पूरी तरह से शांत होती गई।
 खप्पर देखने हजारों की संख्या में दूर-दराज के ग्रामीण ट्रैक्टर , मिनीबस,टैक्सियों, मोटर सायकल, सायकल से सवार होकर कवर्धा आए थे। इनमें बड़ी संख्या में महिलाएं व बच्चे भी थे ।

खास बात यह होती है कि  अष्टमी के दिन मां चंडी व परमेश्वरी मंदिर से निकलने वाले खप्पर को देखने आसपास के ग्रामीण व दूरदराज के वनांचल क्षेत्रों से हजारों की संख्या में बैगा  बनवासी  लोग पहुंचते हैं, जिसकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए पुलिस विभाग ने प्रत्येक   दोनों मंदिरों चौक-चौराहों में तीन-चार सिपाहियों के दल की ड्यूटी लगाकर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए  जाते हैं।

इनका मार्ग  मां चंडी और परमेश्वरी मंदिर से खप्पर  परंपरागत निर्धारित मार्ग  चण्डी मंदिर, खेड़ापति हनुमान मंदिर चौक, दंतेश्वरी मंदिर,ठाकुर पारा मार्ग,ऋषभ देव चौक,वीर स्तंभ चौक अंबेडकर चौक,जमात मंदिर मार्ग, शीतला मंदिर, करपात्री चौक, संतोषी मंदिर चौक, गुप्ता पारा से सिहंवाहिनी मंदिर होते हुए पुन:परमेश्वरी मंदिर तक का होता है।
भारत  में ये प्रथा और भी कही   पर है इसकी जानकारी  आपसे अपेक्झित  है।

1 टिप्पणी:

  1. जी हाँ , खरगोन ,मध्यप्रदेश में भी भावसार समाज में ये परम्परा चली आ रही है ,एक परिवार ही पूजा -अर्चना -आराधना करता है और उसी परिवार के पुरुष देवी रूप धारण करके खप्पर खेलते है। ..

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