मध्य प्रदेश के इस हिस्से में चलती है हिंगोट 'युद्ध' की तैयारी दिवाली के अगले दिन यहां बरसेंगे आग के गोले, चाहे कोई घायल हो या फिर कोई भी मरे
डी.के.शर्मा ११३ त्रिमूर्ति चौक ,सुन्दर नगर रायपुर छत्तीसगढ़
आपने फिल्मो में या फिर टी वी सीरियल रामायण और महाभारत में दो सेनाओं के बीच अग्निबाण से होने वाले युद्ध की दृश्य जरूर देखी या पुस्तको में पढ़ी या सुनी होगी।
युद्ध के नाम से भी हर कोई डरता है. कोई नहीं चाहता है कि युद्ध हो. लेकिन हमारे हि देश के भीतर एक हिस्से में युद्ध की तैयारियां जोर-शोर से शुरू होकर अंतिम दौर में हैं.
जी हा ये क़स्बा है इंदौर शहर से करीब 45 किलोमीटर दूर गौतमपुरा ,जहा पर दिवाली के एक दिन बाद गोधूलि बेला में युद्ध का बिगुल बज जाएगा. इस युद्ध में हार-जीत किसी की नहीं होती लेकिन जख्मी अनेको हो जायेंगे .
दरअसल, गौतमपुरा में वर्षों से हिंगोट युद्ध की परंपरा वर्षो से चली आ रही है.
इस परंपरागत युद्ध में दो दलों के बीच मुकाबला होता है. एक दल को 'तुर्रा' तो दूसरे को 'कलंगी' नाम दिया जाता है. मैदान में आते ही युद्ध में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागी एक-दूसरे पर बारूद से भरे हिंगोट से हमला करते हैं. बिना इस बात की परवाह किये की कौन घायल होता है या किसकी जान जाती है
'हिंगोट' आखिर क्या है ?
हिंगोट एक फल होता है जो नारियल जैसा होता है. बाहरी आवरण कठोर होता है तो भीतरी गूदे वाला. खासियत यह है कि यह फल सिर्फ गौतमपुरा के पास देपालपुर इलाके में ही होता है. यह फल हिंगोरिया नामक वृक्ष से प्राप्त होता है, इसी से इस युद्ध का नाम ही हिंगोट पड़ गया
हिंगोट को हाथियार कैसे बनाते है ?
हिंगोट को हथियार बनाने के लिए पहले फल को अंदर से खोखला कर फिर कई दिनों तक इसे सुखाया जाता है.इस फल के पूरी तरह सूखने के बाद इसके भीतर बारूद भरी जाती है और एक ओर लकड़ी लगा दी जाती है. युद्ध के दौरान जब इस फल के एक हिस्से में आग लगाई जाती है तो वह ठीक राकेट की तरह उड़ता हुआ दूसरे विपक्षी दल तक पहुंचता है. यह बारूद से भरा हिंगोट फैंकने पर तेज आवाज करता है और इसके फटने से दोनों ओर के कई योद्धा घायल भी हो जाते हैं.
हिंगोट युद्ध की तैय्यारी
इस युद्ध में हिस्सा लेने वाले दलों के प्रतिनिधि पूरी तैयारी से पहुंचते हैं. जहां सुरक्षा के लिए हाथों में ढाल होती है तो सिर पर बड़ा से साफा (कपड़े की पगड़ी) बांधे रहते हैं.
हिंगोट युद्ध से जुड़ी धार्मिक मान्यताये व खास बातें
.गौतम ऋषि कि तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध गौतमपुरा का उल्लेख पौराणिक ग्रंथो में भी मिलता है देपालपुर में हर साल दिवाली के दूसरे दिन अग्नि युद्ध यानी हिंगोट युद्ध होता है। गांव के बुजुर्गो के अनुसार ये बताना मुश्किल है कि यह परंपरा कब से शुरू हुई। लोग कहते हैं कि इसका चलन मुगलों के शासन के दौरान यानी लगभग दो सौ साल पहले हुआ था। तब से अब तक यह परंपरा इसी तरह चली आ रही है. जी हा वर्षों पुरानी है यह परंपरा.
युद्ध के नाम से भी हर कोई डरता है. कोई नहीं चाहता है कि युद्ध हो. लेकिन हमारे हि देश के भीतर एक हिस्से में युद्ध की तैयारियां जोर-शोर से शुरू होकर अंतिम दौर में हैं.
जी हा मध्य प्रदेश भी एक विचित्र प्रदेश है जहा पर की लोग कही पत्थर तो कही पर हाथ से बने गोले हिंगोट (बारूदी गोलों) इस परंपरा के तहत लोग एक-दूसरे पर जमकर (हिंगोट) बारूदी गोलों को बरसाते हैं.
जी हा शाम ढलते ही मैदान में अग्निबाणों की वर्षा शुरू हो जाती है । चारों तरफ सर्र-सर्र करते अग्निबाण बरसने लगते है । आग से भरे ये हिंगोट कई बार मैदान में जमा दर्शकों के बीच भी जा गिरते है , तो कभी लड़ाकों को घायल करते हुए निकल जाते है । लेकिन परंपरा का रोमांच इतना ज्यादा होता है था कि जंग होकर हि रहेगी .जी हा ये क़स्बा है इंदौर शहर से करीब 45 किलोमीटर दूर गौतमपुरा ,जहा पर दिवाली के एक दिन बाद गोधूलि बेला में युद्ध का बिगुल बज जाएगा. इस युद्ध में हार-जीत किसी की नहीं होती लेकिन जख्मी अनेको हो जायेंगे .
दरअसल, गौतमपुरा में वर्षों से हिंगोट युद्ध की परंपरा वर्षो से चली आ रही है.
इस परंपरागत युद्ध में दो दलों के बीच मुकाबला होता है. एक दल को 'तुर्रा' तो दूसरे को 'कलंगी' नाम दिया जाता है. मैदान में आते ही युद्ध में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागी एक-दूसरे पर बारूद से भरे हिंगोट से हमला करते हैं. बिना इस बात की परवाह किये की कौन घायल होता है या किसकी जान जाती है
'हिंगोट' आखिर क्या है ?
हिंगोट एक फल होता है जो नारियल जैसा होता है. बाहरी आवरण कठोर होता है तो भीतरी गूदे वाला. खासियत यह है कि यह फल सिर्फ गौतमपुरा के पास देपालपुर इलाके में ही होता है. यह फल हिंगोरिया नामक वृक्ष से प्राप्त होता है, इसी से इस युद्ध का नाम ही हिंगोट पड़ गया
हिंगोट को हथियार बनाने के लिए पहले फल को अंदर से खोखला कर फिर कई दिनों तक इसे सुखाया जाता है.इस फल के पूरी तरह सूखने के बाद इसके भीतर बारूद भरी जाती है और एक ओर लकड़ी लगा दी जाती है. युद्ध के दौरान जब इस फल के एक हिस्से में आग लगाई जाती है तो वह ठीक राकेट की तरह उड़ता हुआ दूसरे विपक्षी दल तक पहुंचता है. यह बारूद से भरा हिंगोट फैंकने पर तेज आवाज करता है और इसके फटने से दोनों ओर के कई योद्धा घायल भी हो जाते हैं.
हिंगोट युद्ध की तैय्यारी
इस युद्ध में हिस्सा लेने वाले दलों के प्रतिनिधि पूरी तैयारी से पहुंचते हैं. जहां सुरक्षा के लिए हाथों में ढाल होती है तो सिर पर बड़ा से साफा (कपड़े की पगड़ी) बांधे रहते हैं.
हिंगोट युद्ध से जुड़ी धार्मिक मान्यताये व खास बातें
.गौतम ऋषि कि तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध गौतमपुरा का उल्लेख पौराणिक ग्रंथो में भी मिलता है देपालपुर में हर साल दिवाली के दूसरे दिन अग्नि युद्ध यानी हिंगोट युद्ध होता है। गांव के बुजुर्गो के अनुसार ये बताना मुश्किल है कि यह परंपरा कब से शुरू हुई। लोग कहते हैं कि इसका चलन मुगलों के शासन के दौरान यानी लगभग दो सौ साल पहले हुआ था। तब से अब तक यह परंपरा इसी तरह चली आ रही है. जी हा वर्षों पुरानी है यह परंपरा.
कई दशकों से खेले जा रहे इस हिंगोट युद्ध को लेकर गौतमपुरा के लोगों में बहुत उत्साह रहता है और वर्ष भर वे इस दिन का इंतजार करते हैं.
.दीपावली के अगले दिन खेले जाने वाला 'हिंगोट युद्ध' अब गौतमपुरा की पहचान बन चुका है..इसे देखने के लिए अब आसपास के शहरों के अलावा विदेशों से भी लोग आते ह
.दीपावली के अगले दिन खेले जाने वाला 'हिंगोट युद्ध' अब गौतमपुरा की पहचान बन चुका है..इसे देखने के लिए अब आसपास के शहरों के अलावा विदेशों से भी लोग आते ह