रविवार, 28 मई 2017



भारतीय कला का छोटा सा नमूना लोहारा कवर्धा ज़िले की बावली 

 सहसपुर लोहारा में स्थित
बावली एक ऐतिहासिक इमारत है, जो छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा ज़िले की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 किमी की दूरी पर स्थित है।
• लोहारा बावली का निर्माण बैजनाथ सिंह ने 120 वर्ष पहले कराया था। बैजनाथ सत्तारूढ़ कवर्धा परिवार के एक शाखा के एक सदस्य थे।
• यह अच्छी तरह से असामान्य विशेषता आंतरिक दीवारों के भीतर कक्षों की उपस्थिति है।
• मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं या तालाबों को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' तथा गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।
जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं।
हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है।
पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं।
बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती
छत्तीसगढ़: युवाओं ने खोद निकाली सैकड़ों साल पुरानी 'बावली'
पुरातात्विक दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ बेहद अहम रहा है. यहां आमतौर पर हर जिले में हजारों साल पुराने इतिहास पुरातात्विक खुदाई में मिलते रहते हैं. राजिम में सिंधु घाटी की सभ्यता के समान ही लगभग साढ़े तीन हजार साल पहले की सभ्यता का पता लगा है. वहीं सिरपुर में भी ढाई हजार साल पहले के इतिहास सामने आए हैं.
अभी हाल ही में कवर्धा जिले के बम्हनी गांव में युवाओं की टोली ने कमाल करते हुए पत्थरों और कचरों से पट चुकी सैकड़ों साल पुरानी बावली (कुंआ) को खुदाई कर निकालने में सफलता पाई है. ये बावली गांव के प्राचीन तालाब से लगी हुई है. ग्रामीणों का मानना है कि ये बावली करीब सवा सौ साल पुरानी होगी.
ग्रामीणों का कहना है कि बावली का इस्तेमाल स्नान या दूसरे प्रयोजन लिए होता रहा होगा.
जूना बिलासपुर यानी बिलासपुर की पुरानी बस्ती। इसकी पहचान बावली कुआं से होती है। बावली कुआं जो अब नगर निगम का पहचान चिन्ह (लोगो)भी है। यही वजह है कि बावली कुएं के बाहर दरवाजा लगाकर उस पर ताला जड़ दिया गया। लोग अब इसकी अंदरूनी दरो दीवार के दीदार भी नहीं कर पाते। 100 साल पुरानी इमारत या निर्माण को पुरातत्व विभाग अपने संरक्षण में ले लेता है, परंतु इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
बावली कुआं के साथ दिलचस्प कहानियां जुड़ी हैं। कहते हैं कि कुएं के अंदर से ही गुप्त रास्ता बना था, जिसे मराठा शासक ने आपात कालीन परिस्थिति में सुरक्षित निकलने के लिए बनवाया था। यह बात लोग जमाने से कहते सुनते आए हैं, परंतु बकौल पुरातत्व विभाग के उप संचालक डा. राहुल सिंह इसका न तो कोई लिखित और न ही प्रमाणिका साक्ष्य आज तक मिल सका है। डा. सिंह ने बताया कि बावली कुएं का निर्माण 125 वर्ष पूर्व मराठा शासकों ने कराया था। बावली कुएं के पीछे मराठा शासकों के किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं। बहरहाल बावली कुआं पहले चारों तरफ से खुला था, बाहर से आने वाले लोग कौतूहलवश इसका अवलोकन करने पहुंच जाते थे। कुएं की जलराशि का इस्तेमाल बाद में धार्मिक कार्यों के लिए होने लगा। हताशा में कुछेक लोगों ने इसमें छलांग कर जान देने की कोशिश की, इसके बाद इसकी सुरक्षा की ओर ध्यान दिया गया। इससे पहले बावली कुएं के घेरे में सागौन के चौखट घेरे थे, जिसके सहारे लोग कभी पानी खींचते थे।

चाँद बावड़ी (अंग्रेज़ी: Chand Baori) एक सीढ़ीदार कुआँ है, जो राजस्थान में जयपुर के निकट दौसा ज़िले के आभानेरी नामक ग्राम में स्थित है। यह सीढ़ीदार कुआँ 'हर्षत माता मंदिर' के सामने स्थित है और भारत ही नहीं, अपितु विश्व के सबसे बड़े सीढ़ीदार और गहरे कुओं में से एक है।

बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं या तालाबों को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' तथा गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।
जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं। बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती हैं।
इतिहास
बावड़ियों को सर्वप्रथम हिन्दुओं द्वारा (जनोपयोगी शिल्पकला के रूप में) विकसित किया गया और उसके पश्चात मुस्लिम शासकों ने भी इसे अपनाया। बावड़ी-निर्माण की परम्परा कम से कम छठी शताब्दी में गुजरात के दक्षिण-पश्चिमी भाग में आरम्भ हो चुकी थी। धीरे-धीरे ऐसे कई निर्माण-कार्य उत्तर की ओर विस्तार करते हुए राजस्थान में बढ़े। अपनी पुस्तक 'राजस्थान की रजत बूँदें' (प्रकाशक: गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली) में अनुपम मिश्र ने राजस्थान की बावड़ियों के इतिहास, शिल्प-पक्ष और इनकी सामाजिक-उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है| बावड़ी-निर्माण का यह कार्य ११वीं से १६वीं शताब्दी में अपने पूर्ण चरम पर रहा।

स्थापत्य कला
अपराजितापृच्छा, राजवल्लभ , शिल्प मंडन, समरांगण सूत्रधार , वास्तुसार और रूपमंडन जैसे अनेक कालजयी वास्तुग्रंथों में वापियों के निर्माण का महत्व, उसके तकनीकी नापजोख, निर्माण के प्रकार, उपयोग और वास्तु पर अनगिनत पृष्ठ लिखे गए हैं|
बावड़ियाँ सुरक्षा के लिए ढकी हुई भी हो सकती हैं, खुली भी पर स्थापत्य और उपयोगिता की दृष्टि से दोनों ही तरह की बावड़ियाँ महत्वपूर्ण हैं। राजस्थान की चाँद बावड़ी और गुजरात में अडालज की बावड़ी इसके महत्वपूर्ण उदाहरणों में से हैं।
वास्तु
बावडियों के परिसर में तरह तरह की तिबारियां, अलग अलग आकर प्रकार के कमरे, संपर्क-दालान, दीर्घाएं, मंदिर आदि अनेक प्रकार के निर्माण किये जाते थे क्यों कि बावड़ी केवल जल के उपयोग की चीज़ नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केंद्र भी होती थी, यहाँ पूजा-अर्चना भी की जा सकती थी, ब्याह-शादी और गोठ-ज्योनार (आज जिसे पिकनिक कहते हैं) भी | दूर से आने वाले यात्री यहाँ बनी धर्मशालाओं में रुक सकते थे |
वास्तुशास्त्र के अनुसार बावड़ियां चतुष्टकोणीय, वर्तुल, गोल या दीर्घ प्रकारों की हो सकती हैं। इनके प्रवेश से मध्य भाग तक ईटों अथवा पत्थरों से पक्का और ठोस निर्माण होता है जिसके ठीक नीचे जल होता है जो प्रायः किसी भूगर्भीय निरंतर प्रवाहित जलस्रोत से जुड़ा होता है। आंगन से प्रथम तल तक सीढ़ियों, स्तंभों, छतरियों तथा मेहराबों आदि का निर्माण होता है। एक या अधिक मंजिल में निर्मित बावड़ियों में अनेकानेक दरवाजे, सीढ़ियाँ, दीवारें तथा आलिए आदि बने होते हैं जिनमें बेलबूटों, झरोखों, मेहराब एवं जल देवताओं का अंकन होता है। जल देवताओं में अधिकांशत कश्यप, मकर, भूदेवी, वराड़, गंगा, विष्णु और दशावतार आदि का चित्रण किया जाता है। पर इन पर उत्कीर्ण कई स्थानीय देवी देवता भी देखे जाते हैं|
भारत की कुछ दर्शनीय योग्य बावड़ियाँ
'चाँद बावड़ी' का निर्माण ९वीं शताब्दी में आभानेरी के संस्थापक राजा चंद्र ने कराया था। राजस्थान में यह दौसा जिले की बाँदीकुई तहसील के आभानेरी नामक ग्राम में स्थित है। बावड़ी १०० फीट गहरी है। इस बाव़डी के तीन तरफ सोपान और विश्राम घाट बने हुए हैं। इस बावड़ी की स्थापत्य कला अद्भुत है। यह भारत की सबसे बड़ी और गहरी बावड़ियों में से एक है। इसमें ३५०० सीढ़ियां हैं। चाँद बावडी के ही समय बनी दूसरी बावड़ी है- भांडारेज की बावड़ी, जो जयपुर-भरतपुर राजमार्ग पर ग्राम भांडारेज में स्थित है| यह दर्शनीय वापी भी बहुमंजिला है और पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान सरकार का संरक्षित स्मारक है|
टोंक जिले में टोडारायसिंह की 'रानी जी की बावडी' और बूंदी में 'हाडी रानी की बावडी' राजस्थान की विशालतर बावडियों में से हैं।
बून्‍दी शहर के मध्‍य में स्थित रानी जी की बावडी की गणना एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियों में की जाती है। इस अनुपम बावडी का निर्माण राव राजा अनिरूद्व सिंह की रानी नाथावती ने करवाया था। कलात्‍मक बावडी में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। बावडी के जल-तल तक पहुचने के लिए सौ से अधिक सीढियां उतरनी होती हैं। कलात्‍मक रानी जी की बावडी उत्‍तर मध्‍य युग की देन है। बावडी के जीर्णोद्वार और चारों ओर एक उद्यान विकसित होने से इसका महत्‍व बढ गया है। हाल ही में रानी जी की बावडी को एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियो में शामिल किया गया है। इसमें झरोखों, मेहराबों जल-देवताओं का अंकन किया गया है। संरक्षित स्मारक के रूप में वर्तमान में रानी जी की बावडी संरक्षण का जिम्‍मा भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के पास है।
श्री कृष्ण के ब्रज में आज भी आधा दर्जन बड़ी बावड़ियाँ हैं। लखनऊ के बाड़ा इमामबाड़ा में 5 मंजिला बावड़ी है। शाही हमाम नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी की तीन मंजिलें आज भी पानी में डूबी रहती हैं। किस्सा तो यह भी है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह में एक ऐसी बावड़ी भी है जिसके पानी से दीये जल उठे थे। सात सौ साल पहले जब गयासुद्दीन तुगलक तुगलकाबाद के निर्माण में व्यस्त था तब श्रमिक हजरत निजामुद्दीन के लिए काम करते थे। तुगलक ने तब तेल की बिक्री रोक दी तो श्रमिकों ने तेल की जगह पानी से दीये जलाए और बावड़ी का निर्माण किया। अब लोग मानते हैं कि इस पानी से मर्ज दूर होते हैं। माना जाता है कि मंदसौर के पास भादवा माता की बावड़ी में नहाने से लकवा दूर हो जाता है।
सवाई माधोपुर की एक बावडी भी चर्मरोग ठीक करने में सहायक है क्योंकि इसके भूगर्भीय जल में कई उपयोगी औषधियां कुदरती तौर पर बताई गयी हैं |
विश्व धरोहर
जून 2014 में गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया गया। यूनेस्को ने इसे तकनीकी विकास का एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुए मान्यता प्रदान की है जिसमें जल-प्रबंधन की बेहतर व्यवस्था और भूमिगत जल का इस्तेमाल इस खूबी के साथ किया गया है कि व्यवस्था के साथ इसमें एक सौंदर्य भी झलकता है। रानी की वाव समस्त विश्व में ऐसी इकलौती बावली है जो विश्व धरोहर सूची में शामिल हुई है जो इस बात का सबूत है कि प्राचीन भारत में जल-प्रबंधन की व्यवस्था कितनी बेहतरीन थी।

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