मंगलवार, 30 मई 2017

अंग्रेज अफसर कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के बारे मेंजिन्होंने गांव को ठगों ,पिंडारियों से आजाद कराया था , उसी के नाम पर है जबलपुर इटारसी रेलवे मार्ग में स्लीमनाबादरोड  स्टेशन (SLEEMNABAD ROAD )है। 
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(पुलिस के काम करने का तरीका भी कर्नल स्लीमन से प्रेरित ही है)

 देवेन्द्र कुमार शर्मा सुंदरनगर रायपुर छत्तीसगढ़ 

 ये है 931 कत्ल करने वाला बेरहम ठगअंग्रेज अफसर ने दी थी इसे मौत


भोपाल। भारत में ब्रितानिया हुकूमत के समय खुलेआम हिंदुस्तानियों को फांसी देने वाला एक क्रूर अंग्रेज अफसर उस इलाके का राबिनहुड बन गया। सुनने में यह बात जरूर अटपटी लगती है पर है सोलह आना सच। यह बात मध्यप्रदेश के कटनी शहर में ब्रिटिश शासन के अंग्रेज अधिकारी कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के लिए बिल्कुल सही हैं। इतना ही नहीं इस अंग्रेज अफसर के नाम से कटनी जिले में एक छोटा सा कस्बा भी आबाद है। कहा जाता है आए थे दुश्मन बन कर पर बन गए दोस्तऔर दोस्त भी ऐसा-वैसा नहीं हजारों लोगों के जीवन की रक्षा करने वाला।जबलपुर इटारसी रेलवे मार्ग में स्लीमनाबाद स्टेशन है। इसी कसबे का नाम 

 अंग्रेज अधिकारी कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से बसा है। तथा यहा पर उनकी याद मेंएक स्मारक भी बनाया गया है .


कटनी जिले में एक कस्बा है स्लीमनाबाद जो अंग्रेज अधिकारी कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से बसा है। यह कस्बा उस अंग्रेज अधिकारी ने बसाया था जिसे इस क्षेत्र में ठग गिरोह को खत्म करने के लिए भेजा गया था । गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार सन् 1790-1840 के बीच इन गिरोह ने 931 सिरीयल किलिंग की जो कि विश्च रिकॉर्ड है। इस समस्या से निजात पाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक विशेष पुलिस दस्ता तैयार किया जिसकी कमान कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन को सौंपी गयी। कर्नल स्लीमन ने जब स्लीमनाबाद में अपनी छावनी बनाई तब भी इन ठग गिरोहों को खत्म करने का काम असंभव सा लगता था। लेकिनअंग्रेज अधिकारी कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन ने अपनी एलआईबी पुलिस बनाकर इन्हें न सिर्फ पकड़ा वरन सैकड़ों ठगों को मौत के घाट उतार दिया।

इतने साल गुजर जाने के बाद भी कर्नल स्लीमन के वंशज स्लीमनाबाद आते रहते हैं। कुछ साल पहले इंग्लेंड से स्लीमन के परिजन स्लीमनाबाद आए थे। कर्नल विलियम हेनरी स्लीमन की सातवीं पीढ़ी के वंशज स्टुअर्ट फिलिप स्लीमन लंदन निवासी स्टुअर्ट फिलिप स्लीमनससेक्स निवासी भाई जेरेमी विलियम स्लीमन के साथ भारत आए तो सबसे पहले स्लीमनाबाद ही आए। स्टुअर्ट फिलिप स्लीमन ने यहां लोगों से मुलाकात की और अपने पूर्वज के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी स्थानीय लोगों से ली। इससे पहले साल 2001 तथा 2003 में भी स्लीमन के वंशज स्लीमनाबाद आए थे।

 ठगों का टीम वर्क


मध्य भारत के ठगों द्वारा ठगी की घटना को अंजाम देना कुशल संचालनबेहतर समय-प्रबंधन और उत्तम टीम-वर्क के बेहतरीन उदाहरण के तौर पर भी याद किया जाता है। उस जमाने के ये ठग चार चरणों में ठगी को अंजाम देते थे। पहले चरण में ठगों की एक टोली जंगलों में छिपकर यात्रियों के समूहों का जायजा लेने की कोशिश करती थी कि किन यात्रियों के पास माल है। यह सुनिश्चित होने के बाद ये जानवारों की आवाज़ में (जिसे ये अपना कोड-वर्ड या ठगी जुबान कहते थे) अपनी दूसरी टोली को इसकी सूचना देते थे। दूसरे टोली यात्रियों के साथ उनके सहयात्रियों की तरह घुल-मिल जाते थे। साथ में भोजन पकाते थेसोते थे और यात्रा करते थे। दूसरी टोली उन यात्रियों की एक अलग टोली बना लेती थी जिनके पास धनसोने-चाँदी होते थे। फिर वे धोखे से उन्हें ज़हर खिलाकर या तो मार देते थे या बेहोश कर देते थे। लेकिन ये टोली उनसे धन लूटने का काम न करके अपनी तीसरी टोली को अपनी जुबान में बताकर अन्य यात्रियों के साथ लग जाती थी। तीसरी टोली आकर उन यात्रियों को पूरी तरह से लूट लेती थी। इस टोली के ठग साथ में खाकी या पीले रंग का रुमाल रखते थेजिससे ये यात्रियों का गरौटा (गला) भी दबाते थे और सोने-चाँदी बाँध ले जाते थे। जाते-जाते ये अपनी चौथी टीम को सूचना दे जाते थे जो यात्रियों की लाशों को या तो कुएं में फेंक देती थी या पहले से तैयार क़ब्रों में दफऩ कर देती थी।

दो शताब्दी तक रहा खूनी ठगों का साम्राज्य 

ठगी का यह पेशा कोई नया नहीं है। मध्यकालीन भारत में तो यह धंधा एक प्रथा के रूप में प्रचलित थाजिसमें ठग लोग भोले-भाले यात्रियों को जहर आदि के प्रभाव से मूर्छित करके अथवा उनकी हत्या करके उनका धन छीन लेते थे। ठगी प्रथा का समय मुख्य रूप से 17 वीं शताब्दी के शुरू से 19वीं शताब्दी अंत। तक माना जाता है। मध्य भारत में प्रकोप की तरह फैले- रुमाल में सिक्कों की गांठ लगा कर रुपये-पैसे और धन के लिए यात्रियों के सिर पर चोट करके लूटने वाले ठग और पिंडारियों का आतंक 19वीं सदी के प्रारंभ तक इतना बढ़ गया कि ब्रिटिश सरकार को इसके लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ी। ठगी प्रथा के कारण मुग़ल काल में नागपुर से उत्तर प्रदेश के शहर मिर्ज़ापुर तक बनी सडक़ पर यात्रियों का चलना मुश्किल हो गया था।

मप्र पुलिस और कर्नल स्लीमन 

स्थानीय लोगों के अनुसार उनके पूर्वज कहा करते थे कि मध्यप्रदेश की पुलिस के काम करने का तरीका भी कर्नल स्लीमन की तरह ही है। माना जाता है कि वर्तमान में पुलिस का एलआईबी डिपार्टमेंट कर्नल के काम करने के तरीके ही देन है। स्लीमन ने ठग और पिंडारियों के खात्मे के लिए अपनी (एलआईबी) मुखबिरों तंत्र को इतना अच्छा बनाया कि कर्नल के मुखबिर ठगों के साथ मिल जाते थे और उन्हें पता भी नहीं चलता था। इस एक वजह से वह इतने सारे ठग गिरोह का सफाया कर सके।


 फांसी का गवाह वह वृक्ष....


स्लीमनाबाद थाने में लगा बड़ा सा पीपल पेड़ पर ही ठग पिंडारियों को फांसी दी जाती थी। कुछ लोग मानते हैं कि जगह तो यही थी पर उस समय यहां पेड़ नहीं था। स्लीमनाबाद थाना का पुराना भवन कर्नल स्लीमन की चौकी माना जाता है। यहां स्लीमन की याद में एक स्मारक बनाया गया है। साथ ही दीवार पर स्लीमनाबाद की उत्पति संबंधी लेख भी लिखा है। जिसमें मप्र पुलिस का जनक कर्नल स्लीमन को बताया गया है।

रविवार, 28 मई 2017



भारतीय कला का छोटा सा नमूना लोहारा कवर्धा ज़िले की बावली 

 सहसपुर लोहारा में स्थित
बावली एक ऐतिहासिक इमारत है, जो छत्तीसगढ़ राज्य के कवर्धा ज़िले की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 किमी की दूरी पर स्थित है।
• लोहारा बावली का निर्माण बैजनाथ सिंह ने 120 वर्ष पहले कराया था। बैजनाथ सत्तारूढ़ कवर्धा परिवार के एक शाखा के एक सदस्य थे।
• यह अच्छी तरह से असामान्य विशेषता आंतरिक दीवारों के भीतर कक्षों की उपस्थिति है।
• मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं या तालाबों को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' तथा गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।
जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं।
हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है।
पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं।
बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती
छत्तीसगढ़: युवाओं ने खोद निकाली सैकड़ों साल पुरानी 'बावली'
पुरातात्विक दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ बेहद अहम रहा है. यहां आमतौर पर हर जिले में हजारों साल पुराने इतिहास पुरातात्विक खुदाई में मिलते रहते हैं. राजिम में सिंधु घाटी की सभ्यता के समान ही लगभग साढ़े तीन हजार साल पहले की सभ्यता का पता लगा है. वहीं सिरपुर में भी ढाई हजार साल पहले के इतिहास सामने आए हैं.
अभी हाल ही में कवर्धा जिले के बम्हनी गांव में युवाओं की टोली ने कमाल करते हुए पत्थरों और कचरों से पट चुकी सैकड़ों साल पुरानी बावली (कुंआ) को खुदाई कर निकालने में सफलता पाई है. ये बावली गांव के प्राचीन तालाब से लगी हुई है. ग्रामीणों का मानना है कि ये बावली करीब सवा सौ साल पुरानी होगी.
ग्रामीणों का कहना है कि बावली का इस्तेमाल स्नान या दूसरे प्रयोजन लिए होता रहा होगा.
जूना बिलासपुर यानी बिलासपुर की पुरानी बस्ती। इसकी पहचान बावली कुआं से होती है। बावली कुआं जो अब नगर निगम का पहचान चिन्ह (लोगो)भी है। यही वजह है कि बावली कुएं के बाहर दरवाजा लगाकर उस पर ताला जड़ दिया गया। लोग अब इसकी अंदरूनी दरो दीवार के दीदार भी नहीं कर पाते। 100 साल पुरानी इमारत या निर्माण को पुरातत्व विभाग अपने संरक्षण में ले लेता है, परंतु इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
बावली कुआं के साथ दिलचस्प कहानियां जुड़ी हैं। कहते हैं कि कुएं के अंदर से ही गुप्त रास्ता बना था, जिसे मराठा शासक ने आपात कालीन परिस्थिति में सुरक्षित निकलने के लिए बनवाया था। यह बात लोग जमाने से कहते सुनते आए हैं, परंतु बकौल पुरातत्व विभाग के उप संचालक डा. राहुल सिंह इसका न तो कोई लिखित और न ही प्रमाणिका साक्ष्य आज तक मिल सका है। डा. सिंह ने बताया कि बावली कुएं का निर्माण 125 वर्ष पूर्व मराठा शासकों ने कराया था। बावली कुएं के पीछे मराठा शासकों के किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं। बहरहाल बावली कुआं पहले चारों तरफ से खुला था, बाहर से आने वाले लोग कौतूहलवश इसका अवलोकन करने पहुंच जाते थे। कुएं की जलराशि का इस्तेमाल बाद में धार्मिक कार्यों के लिए होने लगा। हताशा में कुछेक लोगों ने इसमें छलांग कर जान देने की कोशिश की, इसके बाद इसकी सुरक्षा की ओर ध्यान दिया गया। इससे पहले बावली कुएं के घेरे में सागौन के चौखट घेरे थे, जिसके सहारे लोग कभी पानी खींचते थे।

चाँद बावड़ी (अंग्रेज़ी: Chand Baori) एक सीढ़ीदार कुआँ है, जो राजस्थान में जयपुर के निकट दौसा ज़िले के आभानेरी नामक ग्राम में स्थित है। यह सीढ़ीदार कुआँ 'हर्षत माता मंदिर' के सामने स्थित है और भारत ही नहीं, अपितु विश्व के सबसे बड़े सीढ़ीदार और गहरे कुओं में से एक है।

बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं या तालाबों को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' तथा गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।
जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं। बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती हैं।
इतिहास
बावड़ियों को सर्वप्रथम हिन्दुओं द्वारा (जनोपयोगी शिल्पकला के रूप में) विकसित किया गया और उसके पश्चात मुस्लिम शासकों ने भी इसे अपनाया। बावड़ी-निर्माण की परम्परा कम से कम छठी शताब्दी में गुजरात के दक्षिण-पश्चिमी भाग में आरम्भ हो चुकी थी। धीरे-धीरे ऐसे कई निर्माण-कार्य उत्तर की ओर विस्तार करते हुए राजस्थान में बढ़े। अपनी पुस्तक 'राजस्थान की रजत बूँदें' (प्रकाशक: गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली) में अनुपम मिश्र ने राजस्थान की बावड़ियों के इतिहास, शिल्प-पक्ष और इनकी सामाजिक-उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है| बावड़ी-निर्माण का यह कार्य ११वीं से १६वीं शताब्दी में अपने पूर्ण चरम पर रहा।

स्थापत्य कला
अपराजितापृच्छा, राजवल्लभ , शिल्प मंडन, समरांगण सूत्रधार , वास्तुसार और रूपमंडन जैसे अनेक कालजयी वास्तुग्रंथों में वापियों के निर्माण का महत्व, उसके तकनीकी नापजोख, निर्माण के प्रकार, उपयोग और वास्तु पर अनगिनत पृष्ठ लिखे गए हैं|
बावड़ियाँ सुरक्षा के लिए ढकी हुई भी हो सकती हैं, खुली भी पर स्थापत्य और उपयोगिता की दृष्टि से दोनों ही तरह की बावड़ियाँ महत्वपूर्ण हैं। राजस्थान की चाँद बावड़ी और गुजरात में अडालज की बावड़ी इसके महत्वपूर्ण उदाहरणों में से हैं।
वास्तु
बावडियों के परिसर में तरह तरह की तिबारियां, अलग अलग आकर प्रकार के कमरे, संपर्क-दालान, दीर्घाएं, मंदिर आदि अनेक प्रकार के निर्माण किये जाते थे क्यों कि बावड़ी केवल जल के उपयोग की चीज़ नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केंद्र भी होती थी, यहाँ पूजा-अर्चना भी की जा सकती थी, ब्याह-शादी और गोठ-ज्योनार (आज जिसे पिकनिक कहते हैं) भी | दूर से आने वाले यात्री यहाँ बनी धर्मशालाओं में रुक सकते थे |
वास्तुशास्त्र के अनुसार बावड़ियां चतुष्टकोणीय, वर्तुल, गोल या दीर्घ प्रकारों की हो सकती हैं। इनके प्रवेश से मध्य भाग तक ईटों अथवा पत्थरों से पक्का और ठोस निर्माण होता है जिसके ठीक नीचे जल होता है जो प्रायः किसी भूगर्भीय निरंतर प्रवाहित जलस्रोत से जुड़ा होता है। आंगन से प्रथम तल तक सीढ़ियों, स्तंभों, छतरियों तथा मेहराबों आदि का निर्माण होता है। एक या अधिक मंजिल में निर्मित बावड़ियों में अनेकानेक दरवाजे, सीढ़ियाँ, दीवारें तथा आलिए आदि बने होते हैं जिनमें बेलबूटों, झरोखों, मेहराब एवं जल देवताओं का अंकन होता है। जल देवताओं में अधिकांशत कश्यप, मकर, भूदेवी, वराड़, गंगा, विष्णु और दशावतार आदि का चित्रण किया जाता है। पर इन पर उत्कीर्ण कई स्थानीय देवी देवता भी देखे जाते हैं|
भारत की कुछ दर्शनीय योग्य बावड़ियाँ
'चाँद बावड़ी' का निर्माण ९वीं शताब्दी में आभानेरी के संस्थापक राजा चंद्र ने कराया था। राजस्थान में यह दौसा जिले की बाँदीकुई तहसील के आभानेरी नामक ग्राम में स्थित है। बावड़ी १०० फीट गहरी है। इस बाव़डी के तीन तरफ सोपान और विश्राम घाट बने हुए हैं। इस बावड़ी की स्थापत्य कला अद्भुत है। यह भारत की सबसे बड़ी और गहरी बावड़ियों में से एक है। इसमें ३५०० सीढ़ियां हैं। चाँद बावडी के ही समय बनी दूसरी बावड़ी है- भांडारेज की बावड़ी, जो जयपुर-भरतपुर राजमार्ग पर ग्राम भांडारेज में स्थित है| यह दर्शनीय वापी भी बहुमंजिला है और पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान सरकार का संरक्षित स्मारक है|
टोंक जिले में टोडारायसिंह की 'रानी जी की बावडी' और बूंदी में 'हाडी रानी की बावडी' राजस्थान की विशालतर बावडियों में से हैं।
बून्‍दी शहर के मध्‍य में स्थित रानी जी की बावडी की गणना एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियों में की जाती है। इस अनुपम बावडी का निर्माण राव राजा अनिरूद्व सिंह की रानी नाथावती ने करवाया था। कलात्‍मक बावडी में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। बावडी के जल-तल तक पहुचने के लिए सौ से अधिक सीढियां उतरनी होती हैं। कलात्‍मक रानी जी की बावडी उत्‍तर मध्‍य युग की देन है। बावडी के जीर्णोद्वार और चारों ओर एक उद्यान विकसित होने से इसका महत्‍व बढ गया है। हाल ही में रानी जी की बावडी को एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियो में शामिल किया गया है। इसमें झरोखों, मेहराबों जल-देवताओं का अंकन किया गया है। संरक्षित स्मारक के रूप में वर्तमान में रानी जी की बावडी संरक्षण का जिम्‍मा भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के पास है।
श्री कृष्ण के ब्रज में आज भी आधा दर्जन बड़ी बावड़ियाँ हैं। लखनऊ के बाड़ा इमामबाड़ा में 5 मंजिला बावड़ी है। शाही हमाम नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी की तीन मंजिलें आज भी पानी में डूबी रहती हैं। किस्सा तो यह भी है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह में एक ऐसी बावड़ी भी है जिसके पानी से दीये जल उठे थे। सात सौ साल पहले जब गयासुद्दीन तुगलक तुगलकाबाद के निर्माण में व्यस्त था तब श्रमिक हजरत निजामुद्दीन के लिए काम करते थे। तुगलक ने तब तेल की बिक्री रोक दी तो श्रमिकों ने तेल की जगह पानी से दीये जलाए और बावड़ी का निर्माण किया। अब लोग मानते हैं कि इस पानी से मर्ज दूर होते हैं। माना जाता है कि मंदसौर के पास भादवा माता की बावड़ी में नहाने से लकवा दूर हो जाता है।
सवाई माधोपुर की एक बावडी भी चर्मरोग ठीक करने में सहायक है क्योंकि इसके भूगर्भीय जल में कई उपयोगी औषधियां कुदरती तौर पर बताई गयी हैं |
विश्व धरोहर
जून 2014 में गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया गया। यूनेस्को ने इसे तकनीकी विकास का एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुए मान्यता प्रदान की है जिसमें जल-प्रबंधन की बेहतर व्यवस्था और भूमिगत जल का इस्तेमाल इस खूबी के साथ किया गया है कि व्यवस्था के साथ इसमें एक सौंदर्य भी झलकता है। रानी की वाव समस्त विश्व में ऐसी इकलौती बावली है जो विश्व धरोहर सूची में शामिल हुई है जो इस बात का सबूत है कि प्राचीन भारत में जल-प्रबंधन की व्यवस्था कितनी बेहतरीन थी।

बुधवार, 24 मई 2017

 पुरी रात को  लगनेवाली  रात्रिकालीन  बाजार -बेलगहना छत्तीसगढ़ (BELGAHNA chattisgadh)

सतपुड़ा मैकल पर्वत श्रृंखला की पहाड़ी,की हरी भरी वादियों में जिला मुख्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़ से 52 km दूर कटनी रेल मार्ग में बेलगहना क़स्बा स्थित है .

 जहा पर का भरने वाला साप्ताहिक बाज़ार रात 10 बजे से लेकर सुबेरे सुबेरे 4,5 बजे तक भरता है .और ताज्जुब यह भी की पूरी रात लोग खरीदी करते नज़र आते है ,चाहे आदमी हों या औरत और बच्चे .
खैर बाज़ार क्यों रात ..में लगता है के कारणों पर आने के पूर्व जरा बेलगहना कसबे और आसपास की जगह को भी जान ले 
यहा पर रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही एक तरफ उचे पहाड़ के दर्शन होते है to दुसरे मार्ग से कसबे की बस्तियों की और आते समय बाज़ार के .इसी पहाड़ी पर स्थित है सिद्धमुनि आश्रम, जहा पर बेलगहना में साल में दो बार- शरद पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला भरता है।सतपुड़ा मैकल पर्वत श्रृंखला की पहाड़ी, बेलगहना में स्थित श्री.सिद्ध बाबा आश्रम में विराजमान स्वामी सोहमानंद जी ब्रह्मलीन हो गए। उन्होंने आश्रम परिसर में समाधी ली है ।
इनका उस पहाड़ी के ऊपर आश्रम और मंदिर है .जहा पर पारद(पारा ) से निर्मित छोटा सा शिवलिंग निर्मित है . जिसे मैंने स्वयं देखा है तथा आश्रम में तब जीवित श्री सिद्ध बाबा जी से इसके निर्माण की विधि भी जाना था . श्री अजीत जोगी जी(पूर्व मुख्यमंत्री ) का परिवार इन पर अपार श्रद्धा रखता है .
मै अपने प्रवास के दौरान वन विश्रामगृह के विश्राम गृह जो की इसी पहाड़ी के ऊपर स्थित है में रुका था . वहा पर से सामने दूर तक की पहाड़िया ,नदिया और जंगल के दृश्य किसी भी हिल स्टेशन की भांति मनमोहक दृश्य उत्पन्न कर रही थी .
उन पहाडियों से जंगल तथा बोगदे के बीच से गुजरती ट्रेन देख मन बचपन के दृश्य सामने आ गया जब कोयले इन्जिन वाली ट्रेन में अपनी नानी जी को पिपरिया छोड़ने जा रहा था ,जहा पर की मेरे मामा जी तब प्रोफेसर थे .मैंने बोगदे के अन्दर ट्रेन पहली बार देख उत्त्सुकता में खिड़की से अपनी मुंडी बाहर को किया ,और मेरा चेहरा कोयले की धुँआ से काला हो गया .उसके बाद नानी जी जब तक पिपरिया नही पहुच गयी ,मेरे चेहरा को धो लेने के बाद भी मुझे देखते ही खूब हंसती रही .
तथा मै खिड़की से बाहर झांकते हुए अनेको इन्द्रधनुष ,कलकल बहती नदी नाले और हरे भरे जंगल पहाड़ को देखकर खुश होता रहा 

गौरतलब है कि एसईसीआर जोन के अंतर्गत बिलासपुर से कटनी रेल लाइन पर भनवारटंक स्टेशन है। बिलासपुर रेल डिवीजन में कटनी रेल लाइन पर खोंगसरा-खोडरी के बीच घाट सेक्शन है। इसमें भनवारटंक के बाद बोगदा (टनल) पड़ता है। रेल-मार्ग पर एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है -- भनवारटंक। अचानकमार अभ्यारण्य के बीचो-बीच इस रेलवे स्टेशन पर उतरने का मतलब होता है, सीधे जंगल में उतरना। और रेल के डिब्बे में से सीधे किसी जंगल में उतरने का यह अनुभव जंगल में घुसने के किसी भी अनुभव से अलग और रोमांचक था। 


स्टेशन के पास ही मरही माता का मंदिर है। स्थानीय लोगों ने बताया कि साल 1984 में इंदौर-बिलासपुर एक्सप्रेस रेल हादसे के बाद माता का दर्शन हुआ। स्थानीय लोगों के अनुसार रेल हादसे के बाद स्थान विशेष पर मरही माता ने कुछ लोगों को दर्शन दिया। इसके बाद भक्तों ने दर्शन वाले स्थान पर छोटी से मंदिर का निर्माण किया। ऐसी मान्यता है कि मरही माता के आशीर्वाद से ही बिलासपुर कटनी रेल रूट का जंगली क्षेत्र भनवारंटक में हादसों की कभी पुनरावृत्ति नहीं हुई। माता इस दुरूह मार्ग से गुजरने वाले सभी यात्रियों की रक्षा करती हैं।


रेलवे पटरी के ठीक किनारे स्थित माता के सम्मान में गुजरनेवाली रेलगाड़ियों की रफ्तार भी धीमी हो जाती है। ऐसा बेहद कम देखने को मिलता है। माता को प्रणाम करने के बाद ही गाड़ी चालक आगे की यात्रा पूरी करते हैं।
बेलगहना से थोडा ही आगे है भनवारटंक। कुदरत ने इस जगह को ऐसी खूबसूरती बख्शी है कि आज नहीं, दशकों से यह हर किसी की निगाहों में चढ़ा हुआ है। अंग्रेजों ने करीब 115 साल पहले सन 1900 में यह ब्रिज बनवाया था। यह ब्रिज 115 फीट ऊंचा और 425 फीट लंबा ह
मात्र तीन पिलरों पर टिका है ब्रिज इनमें से बीच वाला पिलर 115 फीट ऊंचा है। तीनों पिलरों के बीच 100-100 फीट की दूरी है। इन्हें पक्की ईंटों से बनाया गया है जिन्हें चूने, बेल और गोंद से बनाए गए गारे से जोड़ा गया है।



108 साल पहले बना था टनल

ब्रिज बनाने के साथ उससे आगे 1907 में पहाड़ी खोदकर टनल का काम शुरू किया गया। 7 डिग्री कर्व लिए हुए यह टनल घोड़े की नाल के आकार का है। इस टनल की लंबाई 334 मीटर है। इसकी दीवारें ईंट और गारे की जुड़ाई वाली है। जो की इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना है .
ब्रिटिश शासनकाल में इस ब्रिज और टनल को बनाना चुनौतीपूर्ण रहा होगा। बैलगाड़ी और खच्चरों के अलावा लेबरों से भी कंस्ट्रक्शन मटेरियल पहुंचवाने की जानकारी मिलती है। पहले पहाड़ की कटिंग कर समतल जगह बनाई गई होगी, फिर खुदाई की गई होगी।
खैर बाज़ार की बात करे तो दरअसल इस बाज़ार को रात में लगने के पीछे कटनी की और से आती पैसेंजर ट्रेन है ,जो की रात को 9 ,10 बजे के आसपास आती है और जिसमे बैठकर इसके पहले अनुपनगर ,शहडोल ,उमरिया के तरफ के बाज़ार से अपना समान बेचकर आता व्यापारी वहा पर उतर जाता है और सुबेरे की ट्रेन में बैठकर बिलसपुर के बाज़ार के लिए फिर निकल जाता है .वैसे सब्जियों ,स्थानीय फलो की बिक्री थोक में खरीदी करने का सबसे बड़ी जगह है .






रविवार, 21 मई 2017

    मेरे श्वसुर " आदरणीय स्व .गुरु प्रसाद शर्मा जी (जिनके स्मृती में रायपुर शहर में राज्य स्तरीय फुटबॉल टूर्नामेंट सप्रे स्कूल के व स्टेडियम ग्राउंड में सी.आर.पी एफ आयोजित उर्जा सी .ए. पी एफ यूथ अंडर -१९ फूटबाल टैलेंट हंट चल रहा है ) की याद में "
    श्री गुरु प्रसाद शर्मा जी जो की गुरु भैय्या के नाम से छत्तीसगढ़ में जाने पहचाने जाते रहे है . पुरे बस्तर में तो पुरानी पीढियों में ऐसा कोई भी व्यक्ति नही है जो की शासकीय नोकरी में रहा हो ,या फिर युवा वर्ग जो की स्पोर्ट से किसी भी तरह से जुडा हुआ रहा हो इन्हें न जानता हों.रायपुर जैसे शहर तत्समय जिसे भारत के अन्य शहरो पर नाम भी और कहा पर है ,नही जानते थे . ,हिन्द स्पोर्टिंग आल इंडिया फूटबाल मैच के नाम पर पुरे भारत में रायपुर की पहचान करने में इनका हिन्द स्पोर्टिंग क्लब को जिन्दा करके एक से एक रायपुर में फूटबाल के खिलाडी तैयार कर उन्हें शहर से बाहर भी के मैच में भाग लेने ले जाकर और वहा से खेल में विजय प्राप्त कर फाइनल कप -शील्ड सहित लौट कर रायपुर के गौरव बढाने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है .
    सागर विश्व विद्यालय इनका हमेशा कृतज्ञ रहेगा क्युकी आप जब भी उनकि फूटबाल टीम के सदस्य के रूप में खेलते रहे है .जीत इन्ही की होती रही है ,
    हाई स्कूल पढने के दिनों में में मै यह नही जानता था , की आगे चलकर ये मेरे स्वसुर बनने वाले है , और मुझे इनका दामाद बनने का सोभाग्य मिलने वाला है ,,किन्तु जब भी फुटबॉल मैच शहर में होता था दोस्तों के मुह से यह सुनकर की आज हिंद्स्पोर्तिंग क्लब की और से गुरु भैय्या खेलेंगे हम लोग सिर्फ इनको खेलते हुए देखने व मैदान जहा पर मैच हो रहा है ,इकट्ठे हो जाते थे . और मेरे जैसे बहुत से लोग सिर्फ इन्हें खेलते हुए देखने इकठ्ठे हुआ करते थे .
    और यह भी सच था की सेंटर फारवर्ड खेलते हुए यदि फुटबॉल इनके पैरो में लगी तो निश्चित रुप से गोल होना तय है .
    यदि कहा जाये की ये छत्तीसगढ़ में फूटबाल के ध्यानचंद थे तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी .क्लास 01 गजटेड ऑफिसर के पद पर काम करते हुए कांकेर में नेहरु युवा केंद्र सेंट्रल govt . के प्रथम ऑफिसर रहते हुए इनहोने पुरे बस्तर ,रायपुर (छुरा ,फिंगेश्वर ,गरियाबंद ) आदि में आज भी जन सामान्य और अपने साथ काम किये हुए सहयोगियो की स्मृतियो में आज भी श्रद्धा पूर्वक मोजूद है .
    शासकीय सेवा से सेवा निर्वित होने पर रायपुर ब्राह्मण समाज के अंनेको जन भागीदार कार्य में सक्रीय सहयोगी रहे है .
    मै अपने आदरणीय स्वसुर जी को स्मरण व् प्रणाम करते हुए राज्य स्तरीय चल रहे फूटबाल मैच के आयोजको को बधाई और धन्यवाद देते हुए 21 मई को हो रहे फाइनल मैच में पहुच रही टीम को अग्रिम बधाई देता हु .